गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

आदिवासियों में परंपरागत पोषण नहीं मिलने से घटी कार्यक्षमता



कभी जंगलों में रहकर अपनी आजीविका चलाने वाले बारेला समुदाय के आदिवासी परिवार अब गांवों के आसपास बसने लगे हैं। उनकी सदियों पुरानी परंपरागत आदिवासी खाद्य सुरक्षा लगभग खत्म हो चुकी है, जो कभी कंदमूल फल, कोदो, कुटकी, मक्का, Óवार के रूप में उन्हें आसान थीं। जिनसे वे अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए पोषण आहार ग्रहण करते थे, लेकिन अब वे गेहंू, कपास और सोयाबीन जैसी नगदी फसलों का उत्पादन कर रहे हैं। यह फसलें आदिवासी समुदाय की संस्कृति का हिस्सा नहीं है। हालांकि फिर भी इनकी खाद्य सुरक्षा में पहले की तुलना में सुधार हुआ है, लेकिन बारेला आदिवासी आज भी आहार में पोषण को लेकर तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं।"

देवास जिले की खातेगांव तहसील के पटरानी पंचायत में छोटी खिवनी नामक गांव में खरगोन जिले से कुछ बारेला आदिवासी परिवार यहां आए हैं। पहले यहां पर इस समुदाय के लोग बहुत कम थे। खरगोन के राजपुर तहसील में इनके पूर्वजों के पास रोजगार का कोई साधन न होने पर आसपास के क्षेत्र में पलायन कर दिया। वहां से इन्होंने रोजगार के लिए कई स्थान बदले और अंत में खातेगांव के खिवनी गांव में आकर बस गए। समुदाय के 70 वर्षीय लालू पटेल बताते हैं कि करीब 60 साल से अधिक हो गए जब हमारे पिता हमें लेकर खिवनी आए थे। पिताजी को पता चला था कि देवास जिले के वन ग्रामों में सरकार द्वारा आदिवासियों को खेती के लिए जमीन दी जा रही है। उस समय यहां भवरासकर रेंजर की ड्यिूटी थी। उनका मानना था कि आदिवासियों को खिवनी रेंज में बसाने से जंगलों में आग लगने और लकड़ी चोरों को पकडऩे में मदद मिलेगी। इसलिए उन्होंने यहां वन क्षेत्र में बारेला आदिवासियों को जमीन उपलब्ध कराई। लालू पटेल ने बताया कि पूरे वन ग्राम में सन 1945-50 से लेकर अब तक आसपास के क्षेत्र में करीब 120 परिवारों को पट्टे पर जमीन दी गई है। छोटी खिवनी मेंं वन विभाग ने समुदाय के 26 परिवारों को अधिकार पत्र दिया है। वहीं, 14 परिवार इससे अब भी वंचित है। जिसके लिए वन विभाग और प्रशासन के अधिकारियों से संपर्क कर रहे हैं।"

आजीविका के बारे में लालू पटेल बताते हैं कि हमारे पूर्वज गोंद, शहद एवं कंदमूल फल आदि लाकर अपना और अपने परिवार का पेट भरते थे। इससे समुदाय के लोगों का शरीर निरोगी एवं पुष्ट बनाने में मदद मिलती थी। इसके अलावा उदर पोषण के लिए Óवार, मक्का, कोदों, कुटकी जैसे मोटे एवं सस्ते अनाजों की फसल पैदा करते थे, लेकिन सरकार की अजीबो गरीब कृषि नीति के कारण अब आदिवासी कमाई के लालच में कपास, सोयाबीन जैसी नगदी फसलों की पैदावार करने लगे हैं। अब तो नगदी फसलों की खेती भी कम हो रही हैं, क्योंकि उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों की बढ़ती क़ीमतों के कारण उत्पादन की लागत भी बढ़ गई हैं। फिर भी पैसे के लालच में आदिवासी किसान परंपरागत खेती को छोड़कर नगदी फसलों पर ही ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं। इस कारण अनाज के मामले में अब तक आत्मनिर्भर रहे बारेला आदिवासी भी अब सरकारी और मुफ्त के राशन पर आश्रित हो गए हैं। वहीं, परंपरागत फसलों का उत्पादन बंद होने से शारीरिक कमजोरी होने लगी है साथ ही कार्यक्षमता भी घटी है। समुदाय के लोग मुख्य रूप से खेती और मजदूरी पर ही निर्भर हैं।"


समुदाय के राजाराम पडिय़ार बताते हैं कि हमारे दादा-परदादा जंगल में जब शिकार करने जाते थे तो वे परिवार के सदस्यों व गर्भवती महिलाओं के पोषण के लिए जंगल से कंद लाते थे। जिनके सेवन से उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती थी और पैदा होने वाला ब"ाा भी स्वस्थ्य होता था। अब स्थिति यह है कि बिना अस्पताल गए डिलीवरी होने में डर बना रहता है। हर दो-तीन महीने में समुदाय की गर्भवती महिलाओं को डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है। इसके बाद उन्हें कई दिनों तक दवाइयां खानी पड़ती है। वहीं, समुदाय में अब भी कम उम्र में शादी होने का सिलसिला खत्म नहीें हुआ। हालांकि जागरूकता का असर इतना हुआ है कि पहले बचपन में शादी तय हो जाती थी। अब समुदाय में 15 साल से कम उम्र की लड़की की शादी नहीं करते। समुदाय में अशिक्षा के कारण न तो वे पोषण की जानकारी रख पाती हैं और उनके गर्भवती होने पर उन्हें अलग से पोषण के लिए अहार मिलता हैं। "




समुदाय की रामबाई ने बताया कि मैंने गर्भवती होने पर अलग से कुछ भी खाया, जो भी परिवार के सदस्यों के लिए बनता था। उसे ही हम खाते थे। हां, अब आंगनवाड़ी केंद्रों से खिचड़ी और सत्तू दिया जाता है। वह भी कभी कभार ही मिलता है और जो मिलता है वह भी अपर्याप्त होता है। अंडा, मांस और मछली का सेवन भी नियमित नहीं कर पाते हैं। जानवरों की कमी होने से दूध की किल्लत हमेशा बनी रहती है। राम बाई ने बताया कि एक साल पहले समुदाय की दो महिलाओं को कम वजन के दुबले-पतले ब'चे पैदा हुए थे। जिनका इलाज अस्पताल में चल रहा है। पहले बीमार होने पर ब"ाों ने खाना-पीना भी बंद कर दिया था और रात को रोते रहते थे। अब इन ब"ाों की हालत में धीरे-धीरे सुधार भी आ रहा है। समुदाय के सदस्यों व महिलाओं मेें पहले की तुलना में जागरुकता आ रही है। वे स्थानीय झाडफ़ूंक का सहारा लेने के अलावा अस्पताल में डॉक्टर से इलाज कराने को लेकर भी गंभीर है। इसी का परिणाम है कि इस गांव में ब"ाों में कुपोषण का स्तर नहीं के बराबर है।