गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

आदिवासी बच्चों ने घर में सीखी बारेला बोली और स्कूल में हिंदी, अब सीखना चाहते हैं अंग्रेजी

हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया के प्राथमिक स्कूल की कहानी

जब किसी स्कूल में पढ़ने वाले आदिवासी विद्यार्थियों की जाति आधारित बोली अलग-अलग हो तो शिक्षक की मन: स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। प्राथमिक से माध्यमिक स्कूल तक की आठ कक्षाओं के सभी बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल में एक ही शिक्षक हो तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। ऐसा ही स्थिति खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल में प्राथमिक विद्यालय डाबिया, जामन्या खुर्द, कालीबाड़ी, गोलखेड़ा, कालाकुंआ सहित आसपास के क्षेत्रों की है। यहां आदिवासी समुदाय के अंतर्गत आने वाली जातियों की बोलियां अलग-अलग होने से स्कूल में बच्चोंं को प्रवेश के दौरान हिंदी भाषा सीखने में कठिनाई आती है। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं होना भी एक परेशानी है। इधर, शिक्षक के साथ भी दिक्कत यह है कि वे समुदाय की भाषा नहीं समझते। इसी का परिणाम है कि ग्राम डाबिया में बारेला समुदाय का एक भी बालक या बालिका कक्षा आठवीं तक पास नहीं कर पाया। अनियमित स्कूल आने और बचपन से ही पिता के साथ खेतों में मजदूरी करने से ये बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्रशासन कितने ही दावे करें, लेकिन जमीनी बिलकुल अलग है।

ग्राम डाबिया में आदिवासी समुदाय के बारेला, प्रधान और कोरकू तीन जातियों के लोग रहते हैं। इनकी स्थानीय बोली भी अलग-अलग है। यहां करीब 70 मकानों में महिला और पुरुष की आबादी 384-384 बराबर है। इन परिवारों के 6 वर्ष तक के 63 बालक और 64 बालिका हैं, जो स्कूल के रिकाॅर्ड के मुताबिक हाजरी रजिस्टर में दर्ज हैं। डाबिया का प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालय एक शिक्षक के भरोसे है। इन्हें गैर शैक्षणिक कार्य का दायित्व भी इन्हें निभाना पड़ता है।

यहां 1987 से पदस्थ शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया ने बताया कि आदिवासी समुदाय के बच्चों की स्थानीय स्तर पर बोली अलग-अलग है। वे अपने घर-परिवार और समुदाय के लोगों से इसी भाषा में बात करते हुए पले-बढ़े हुए हैं। जैसे बारेला समुदाय के लोग बारेला बोली बोलते हैं। इसी तरह प्रधान और कोरकू की भी अपनी स्थानीय बोली है। जब इन समुदायों के बच्चे प्राथमिक स्कूल में प्रवेश लेते हैं तो उन्हें पढ़ाई करने के लिए एक नई भाषा हिंदी मिलती है।

सुनने, बोलने और पढ़ने की दक्षताओं का कराते हैं विकास
शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया बताते हैं कि स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चों को सबसे पहले सुनना, बोलना और पढ़ना जैसी दक्षताओं का विकास काराया जाता है। चूंकि स्कूल में बच्चों को हमें हिंदी भाषा में पढ़ाना होता है। वहीं, समुदाय के छोटे बच्चे शुरुआत में हिंदी भाषा से अनजान होते हैं। इसलिए हमें बच्चों में दक्षता और कौशल विकसित करने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है। शुरू में बच्चों को कुछ भी समझ नहीं आता। जब उनसे बात करते हैं तो वे स्थानीय बोली में अपनी बात रखते हैं। तब शिक्षक को कुछ समझ में नहीं आता। ऐसे में बड़ी कक्षाओं के बच्चों की मदद लेनी पड़ती है। उनसे बच्चों द्वारा बोली गई बात को समझना पड़ता है। स्कूल में दिक्कत भाषा को लेकर तब आती है। जब एक ही कक्षा में तीन अलग-अलग बोली के बच्चे हों।

आदिवासी बोली के समझने के लिए स्थानीय शिक्षक जरूरी
बकोरिया बताते है कि ऐसी स्थिति में समुदाय के ही किसी व्यक्ति को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे। एक तो बच्चों को उनकी बोली और हिंदी भाषा में अध्यापन कराने के लिए दुभाषिया शिक्षक मिल जाएगा। जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होगी। दूसरा आदिवासी समुदाय के लोगों स्थानीय स्तर पर रोजगार और प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने बताया कि इसी मंशा को लेकर दो साल पहले समुदाय के ही एक व्यक्ति को अतिथि शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी है। जिसके बेहतर परिणाम भी सामने आने लगे हैं।

बच्चों में पहले डर, फिर झिझक, बाद में मिलने लगता है माहौल
अतिथि शिक्षक संजय उईके ने बताया कि वे प्राथमिक कक्षा के बच्चों पढ़ा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा परेशानी पहली कक्षा में आती है। जब बच्चा स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसमेें डर होता है। कुछ समय बाद यह धीरे-धीरे झिझक में बदल जाता है। इसके बाद बच्चे को माहौल मिलने लगता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।

परीक्षा के दौरान शुरू होता है आजीविका के लिए पलायन
जब बच्चों की परीक्षाओं का समय करीब आता है तो आदिवासी परिवारों का रोजगार के लिए पलायन करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। क्योंकि यह समुदाय की आजीविका से जुड़ा मामला है। अगले चार महीने बाद बारिश शुरू हो जाती है। इससे पहले उन्हें रोजमर्रा की जरूरतों को भी पूरा करना होता है। इस दौरान बच्चे भी अपने माता-पिता के साथ जाते हैं। वे वहां या तो अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते हैं या फिर खेती के काम में हाथ बंटाते हैं। इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है और वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं।

घर में बोलते हैं बारेला बोली, मैं अंग्रेजी भी सीखना चाहती हूं
डाबिया के प्राथमिक स्कूल में अपनी बहन सीमा और भाई करण के साथ कक्षा चौथीं में पढ़ने वाली संगीता पिता राधु बारेला ने बताया कि पहले हिंदी समझ में नहीं आती थी। फिर स्कूल के ही अन्य बच्चों से हिंदी में बातचीत की। स्कूल में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों को समझा। अब में स्कूल में हिंदी और घर पर बारेला बोली बोलती हूं। संगीता कहती है कि मैं अंग्रेजी पढ़ना चाहती हूं, लेकिन अंग्रेजी पढ़ाने वाला कोई शिक्षक स्कूल में नहीं हैं।

अंचल के अन्य स्कूलों की भी यही कहानी
इसी तरह जामन्य खुर्द के प्राथमिक विद्यालय में बारेला समुदाय के 13 बालक और 9 बालिका दर्ज हैं। स्कूल के निरीक्षण के दौरान एक बालिका ही स्कूल में मिली। शिक्षिका शांतिबाई ने बताया कि बच्चे होली का त्योहार होने से छुट्टी पर है। उन्होंने भी डाबिया की तरह भाषा संबंधी दिक्कत बताई। चूंकि शिक्षिका के आदिवासी समुदाय से होने के कारण वे बच्चों की स्थानीय बोली को आसानी से समझ लेती हैं। जामन्य खुर्द स्कूल से बारेला समुदाय की एक बालिका सीमा ही 10 कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर सकी है। उसकी आगे और पढ़ाई करने की इच्छा थी, लेकिन माता-पिता ने उसकी शादी कर दी।


मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

आदिवासियों को नहीं मिल रहा योजनाओं का लाभ

आदिवासी समुदाय की खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में वैसे तो शासन की गई योजनाएं संचालित हैं, लेकिन इनका जमीनीस्तर पर सही क्रियान्वयन नहीं होने से कई परिवारों को लाभ नहीं मिल रहा है। साथ ही संबंधित विभागों के जिन अधिकारियों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है वे भी अपने दायित्वों को लेकर गंभीर नहीं है। इनमें प्राथमिक स्कूल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, मध्याह्न भोजन, बीपीएल, एपीएल के अलावा ग्राम पंचायतों में बुुनियादी सुविधाओं को लेकर बनी योजनाएं शामिल हैं, जो आदिवासी परिवारों के लिए छलावा साबित हो रही है।

क्षेत्र में आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या कम होने से गर्भवती महिलाओं को इनके माध्यम से मिलने वाले पोषण अहार के रूप में दलिया, सत्तू, खिचड़ी और दवाइयां भी समय पर नहीं मिलती। वहीं, जिन केंद्रों मिलती है वहां भी मात्रा पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए उन्हें गांव के करीब तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। यह कहना है कि देवास जिले की खातेगांव तहसील के रतनपुर कांवड़ में रहने वाले 60 वर्षीय गिरधर बारेला का। उन्होंने बताया कि गांव चंदपुरा बीट वन परिक्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहां करीब 65-70 मकान हैं, जिनमें 25 परिवार रहते हैं।

क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केरोसिन और राशन का वितरण तो होता है। जब इसको लेकर समुदाय के लोगों से चर्चा की गई तो 35 वर्षीय छतरसिंह बारेला ने बताया कि यहां राशन की दुकान से राशन तो मिलता है, लेकिन समय से राशन दुकान नहीं खुलने से परेशानी का सामना करना पड़ता है। वहीं, राशन कम तौलना, दुकान का भी दूर होना, पिछले महीने राशन अगर किसी कारण वश अगर छूट जाता है तो नहीं देना। इस तरह की समस्या अक्सर बनी रहती है।

छतरसिंह ने बताया कि हम लोगों को सोसायटी से मिलने वाले राशन से खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। जब घर में अनाज की कमी होने लगती है तो राशन दुकान से ही राशन खरीदते है, लेकिन यहां कभी राशन अच्छा मिलता है तो कभी मध्यम दर्जे का होता है। कभी तो इसकी गुणवत्ता बिलकुल घटिया होती है। इसमें छोटे दाने और मिट्टी भी भरपूर होती है। इसे साफ करने पर करीब 10 फीसदी कचरा निकल जाता है।

उन्होंने बताया कि जब से पारंपरिक अनाज की आत्मनिर्भर खत्म हुई है तब से हमें राशन दुकानों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की राशन दुकानों से एक सीमा तक समुदाय के लोगों को खाद्य सुरक्षा मिलती है, लेकिन इससे हमें पर्याप्त पोषण अहार नहीं मिलता। छतरसिंह का मानना है कि समुदाय के लोगों ने लंबे समय से ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी जैसे मोटे अनाज का सेवन किया है। ऐसे में गेहूं और चावल मिलने के बाद भी हमारी खाद्य सुरक्षा अधूरी सी लगती है।

समुदाय के गिरधर बारेला बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में मनरेगा योजना संचालित है, लेकिन इसका लाभ समुदाय के लोगों को नहीं मिल रहा है। गांव में योजना के तहत तालाब और सड़क निर्माण जैसे काम कम ही हुए हैं जहां हुए हैं वहां भी लोगों को पैसा नहीं मिला है उन्हें आज भी पैसों के लिए भटकना पड़ रहा है। अब क्षेत्र में समुदाय के लोग मनरेगा में काम ही नहीं करना चाहते। उनका कहना है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे समय पर मिलना चाहिए। अगर पैसा नहीं मिल रहा है तो ऐसे काम का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इसके अलावा सरपंच और बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इससे हमारा समय भी खराब होता है और अन्य जरूरी काम भी प्रभावित होते हैं। वहीं, दूसरी जगह मजदूरी करने पर हमें नगद पैसा मिलता है। जाहिर है आदिवासी क्षेत्रों में मनरेगा योजना समुदाय के लोगों की खाद्य सुरक्षा को पूरा नहीं कर पा रही है।

आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों में शासन के निर्देश के बावजूद मेनू के मुताबिक बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं दिया जा रहा है। भोजन में बच्चों को पोषण देने वाली चीजे भी पर्याप्त नहीं मिलती है। समुदाय के लोगों ने बताया कि यहां शिक्षक अपनी मर्जी के मुताबिक समूह से भोजन बनवाते हैं। वहीं, बच्चों की उपस्थिति अधिक बताकर अनियमितता भी की जाती है। कई बच्चे स्कूल में भोजन करने के बाद घर आकर भी भोजन करते हैं। इस मामले की शिकायत करने पर व्यवस्था कुछ सुधरी, लेकिन थोड़े समय बाद हालात जस के तस हो गए।

ग्राम पंचायतों द्वारा विकास के लेकर किए जाने वाले कार्य भी समुदाय के लिए संतोषप्रद नहीं है। इन लोगों को पंचायत की ओर से बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही है। समुदाय के लोगों को खस्ताहाल सड़क, बिजली नहीं होना, पानी भी दूर से लाना जैसी समस्या है। सरपंच ने यहां एक भी विकास कार्य नहीं कराया है। ग्रामीणों को आरोप है कि हर साल सरकार विकास के नाम पर लाखों रुपए भेजती है। आखिर यह पैसा कहां जा रहा है? इसकी जांच होनी चाहिए।

ग्रामीण सीताराम ने बताया कि हम लोगों को बारिश में सबसे अधिक परेशानी होती है। यहां आसपास के क्षेत्र में सड़क पर कीचड़ हो जाता है। ऐसे में पैदल जाना भी मुश्किल होता है। हम लोगों ने सरपंच और दौरे के समय विधायक के सामने भी सड़क बनाने की मांग रखी थी, लेकिन वे भी आश्वासन देकर चले गए। सीताराम का कहना है कि जब तक इन क्षेत्रों का विकास नहीं होगा तो व्यवस्था कैसी सुधरेंगी। इस मामले में क्षेत्र के जागरूक लोगों ने बताया कि यह क्षेत्र वन ग्राम में आता है। इसलिए यहां बिजली और सड़क निर्माण में दिक्कत आ रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समुदाय के लोगों को जितनी जरूरत खाद्य सुरक्षा की है उतनी ही आज बुनियादी सुविधाओं की भी। अगर यह कहा जाए कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी। सरकार को इन चीजों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।