मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

आदिवासियों को नहीं मिल रहा योजनाओं का लाभ

आदिवासी समुदाय की खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में वैसे तो शासन की गई योजनाएं संचालित हैं, लेकिन इनका जमीनीस्तर पर सही क्रियान्वयन नहीं होने से कई परिवारों को लाभ नहीं मिल रहा है। साथ ही संबंधित विभागों के जिन अधिकारियों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है वे भी अपने दायित्वों को लेकर गंभीर नहीं है। इनमें प्राथमिक स्कूल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, मध्याह्न भोजन, बीपीएल, एपीएल के अलावा ग्राम पंचायतों में बुुनियादी सुविधाओं को लेकर बनी योजनाएं शामिल हैं, जो आदिवासी परिवारों के लिए छलावा साबित हो रही है।

क्षेत्र में आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या कम होने से गर्भवती महिलाओं को इनके माध्यम से मिलने वाले पोषण अहार के रूप में दलिया, सत्तू, खिचड़ी और दवाइयां भी समय पर नहीं मिलती। वहीं, जिन केंद्रों मिलती है वहां भी मात्रा पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए उन्हें गांव के करीब तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। यह कहना है कि देवास जिले की खातेगांव तहसील के रतनपुर कांवड़ में रहने वाले 60 वर्षीय गिरधर बारेला का। उन्होंने बताया कि गांव चंदपुरा बीट वन परिक्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहां करीब 65-70 मकान हैं, जिनमें 25 परिवार रहते हैं।

क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केरोसिन और राशन का वितरण तो होता है। जब इसको लेकर समुदाय के लोगों से चर्चा की गई तो 35 वर्षीय छतरसिंह बारेला ने बताया कि यहां राशन की दुकान से राशन तो मिलता है, लेकिन समय से राशन दुकान नहीं खुलने से परेशानी का सामना करना पड़ता है। वहीं, राशन कम तौलना, दुकान का भी दूर होना, पिछले महीने राशन अगर किसी कारण वश अगर छूट जाता है तो नहीं देना। इस तरह की समस्या अक्सर बनी रहती है।

छतरसिंह ने बताया कि हम लोगों को सोसायटी से मिलने वाले राशन से खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। जब घर में अनाज की कमी होने लगती है तो राशन दुकान से ही राशन खरीदते है, लेकिन यहां कभी राशन अच्छा मिलता है तो कभी मध्यम दर्जे का होता है। कभी तो इसकी गुणवत्ता बिलकुल घटिया होती है। इसमें छोटे दाने और मिट्टी भी भरपूर होती है। इसे साफ करने पर करीब 10 फीसदी कचरा निकल जाता है।

उन्होंने बताया कि जब से पारंपरिक अनाज की आत्मनिर्भर खत्म हुई है तब से हमें राशन दुकानों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की राशन दुकानों से एक सीमा तक समुदाय के लोगों को खाद्य सुरक्षा मिलती है, लेकिन इससे हमें पर्याप्त पोषण अहार नहीं मिलता। छतरसिंह का मानना है कि समुदाय के लोगों ने लंबे समय से ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी जैसे मोटे अनाज का सेवन किया है। ऐसे में गेहूं और चावल मिलने के बाद भी हमारी खाद्य सुरक्षा अधूरी सी लगती है।

समुदाय के गिरधर बारेला बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में मनरेगा योजना संचालित है, लेकिन इसका लाभ समुदाय के लोगों को नहीं मिल रहा है। गांव में योजना के तहत तालाब और सड़क निर्माण जैसे काम कम ही हुए हैं जहां हुए हैं वहां भी लोगों को पैसा नहीं मिला है उन्हें आज भी पैसों के लिए भटकना पड़ रहा है। अब क्षेत्र में समुदाय के लोग मनरेगा में काम ही नहीं करना चाहते। उनका कहना है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे समय पर मिलना चाहिए। अगर पैसा नहीं मिल रहा है तो ऐसे काम का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इसके अलावा सरपंच और बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इससे हमारा समय भी खराब होता है और अन्य जरूरी काम भी प्रभावित होते हैं। वहीं, दूसरी जगह मजदूरी करने पर हमें नगद पैसा मिलता है। जाहिर है आदिवासी क्षेत्रों में मनरेगा योजना समुदाय के लोगों की खाद्य सुरक्षा को पूरा नहीं कर पा रही है।

आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों में शासन के निर्देश के बावजूद मेनू के मुताबिक बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं दिया जा रहा है। भोजन में बच्चों को पोषण देने वाली चीजे भी पर्याप्त नहीं मिलती है। समुदाय के लोगों ने बताया कि यहां शिक्षक अपनी मर्जी के मुताबिक समूह से भोजन बनवाते हैं। वहीं, बच्चों की उपस्थिति अधिक बताकर अनियमितता भी की जाती है। कई बच्चे स्कूल में भोजन करने के बाद घर आकर भी भोजन करते हैं। इस मामले की शिकायत करने पर व्यवस्था कुछ सुधरी, लेकिन थोड़े समय बाद हालात जस के तस हो गए।

ग्राम पंचायतों द्वारा विकास के लेकर किए जाने वाले कार्य भी समुदाय के लिए संतोषप्रद नहीं है। इन लोगों को पंचायत की ओर से बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही है। समुदाय के लोगों को खस्ताहाल सड़क, बिजली नहीं होना, पानी भी दूर से लाना जैसी समस्या है। सरपंच ने यहां एक भी विकास कार्य नहीं कराया है। ग्रामीणों को आरोप है कि हर साल सरकार विकास के नाम पर लाखों रुपए भेजती है। आखिर यह पैसा कहां जा रहा है? इसकी जांच होनी चाहिए।

ग्रामीण सीताराम ने बताया कि हम लोगों को बारिश में सबसे अधिक परेशानी होती है। यहां आसपास के क्षेत्र में सड़क पर कीचड़ हो जाता है। ऐसे में पैदल जाना भी मुश्किल होता है। हम लोगों ने सरपंच और दौरे के समय विधायक के सामने भी सड़क बनाने की मांग रखी थी, लेकिन वे भी आश्वासन देकर चले गए। सीताराम का कहना है कि जब तक इन क्षेत्रों का विकास नहीं होगा तो व्यवस्था कैसी सुधरेंगी। इस मामले में क्षेत्र के जागरूक लोगों ने बताया कि यह क्षेत्र वन ग्राम में आता है। इसलिए यहां बिजली और सड़क निर्माण में दिक्कत आ रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समुदाय के लोगों को जितनी जरूरत खाद्य सुरक्षा की है उतनी ही आज बुनियादी सुविधाओं की भी। अगर यह कहा जाए कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी। सरकार को इन चीजों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।

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