गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

आदिवासी बच्चों ने घर में सीखी बारेला बोली और स्कूल में हिंदी, अब सीखना चाहते हैं अंग्रेजी

हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया के प्राथमिक स्कूल की कहानी

जब किसी स्कूल में पढ़ने वाले आदिवासी विद्यार्थियों की जाति आधारित बोली अलग-अलग हो तो शिक्षक की मन: स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। प्राथमिक से माध्यमिक स्कूल तक की आठ कक्षाओं के सभी बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल में एक ही शिक्षक हो तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। ऐसा ही स्थिति खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल में प्राथमिक विद्यालय डाबिया, जामन्या खुर्द, कालीबाड़ी, गोलखेड़ा, कालाकुंआ सहित आसपास के क्षेत्रों की है। यहां आदिवासी समुदाय के अंतर्गत आने वाली जातियों की बोलियां अलग-अलग होने से स्कूल में बच्चोंं को प्रवेश के दौरान हिंदी भाषा सीखने में कठिनाई आती है। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं होना भी एक परेशानी है। इधर, शिक्षक के साथ भी दिक्कत यह है कि वे समुदाय की भाषा नहीं समझते। इसी का परिणाम है कि ग्राम डाबिया में बारेला समुदाय का एक भी बालक या बालिका कक्षा आठवीं तक पास नहीं कर पाया। अनियमित स्कूल आने और बचपन से ही पिता के साथ खेतों में मजदूरी करने से ये बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्रशासन कितने ही दावे करें, लेकिन जमीनी बिलकुल अलग है।

ग्राम डाबिया में आदिवासी समुदाय के बारेला, प्रधान और कोरकू तीन जातियों के लोग रहते हैं। इनकी स्थानीय बोली भी अलग-अलग है। यहां करीब 70 मकानों में महिला और पुरुष की आबादी 384-384 बराबर है। इन परिवारों के 6 वर्ष तक के 63 बालक और 64 बालिका हैं, जो स्कूल के रिकाॅर्ड के मुताबिक हाजरी रजिस्टर में दर्ज हैं। डाबिया का प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालय एक शिक्षक के भरोसे है। इन्हें गैर शैक्षणिक कार्य का दायित्व भी इन्हें निभाना पड़ता है।

यहां 1987 से पदस्थ शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया ने बताया कि आदिवासी समुदाय के बच्चों की स्थानीय स्तर पर बोली अलग-अलग है। वे अपने घर-परिवार और समुदाय के लोगों से इसी भाषा में बात करते हुए पले-बढ़े हुए हैं। जैसे बारेला समुदाय के लोग बारेला बोली बोलते हैं। इसी तरह प्रधान और कोरकू की भी अपनी स्थानीय बोली है। जब इन समुदायों के बच्चे प्राथमिक स्कूल में प्रवेश लेते हैं तो उन्हें पढ़ाई करने के लिए एक नई भाषा हिंदी मिलती है।

सुनने, बोलने और पढ़ने की दक्षताओं का कराते हैं विकास
शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया बताते हैं कि स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चों को सबसे पहले सुनना, बोलना और पढ़ना जैसी दक्षताओं का विकास काराया जाता है। चूंकि स्कूल में बच्चों को हमें हिंदी भाषा में पढ़ाना होता है। वहीं, समुदाय के छोटे बच्चे शुरुआत में हिंदी भाषा से अनजान होते हैं। इसलिए हमें बच्चों में दक्षता और कौशल विकसित करने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है। शुरू में बच्चों को कुछ भी समझ नहीं आता। जब उनसे बात करते हैं तो वे स्थानीय बोली में अपनी बात रखते हैं। तब शिक्षक को कुछ समझ में नहीं आता। ऐसे में बड़ी कक्षाओं के बच्चों की मदद लेनी पड़ती है। उनसे बच्चों द्वारा बोली गई बात को समझना पड़ता है। स्कूल में दिक्कत भाषा को लेकर तब आती है। जब एक ही कक्षा में तीन अलग-अलग बोली के बच्चे हों।

आदिवासी बोली के समझने के लिए स्थानीय शिक्षक जरूरी
बकोरिया बताते है कि ऐसी स्थिति में समुदाय के ही किसी व्यक्ति को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे। एक तो बच्चों को उनकी बोली और हिंदी भाषा में अध्यापन कराने के लिए दुभाषिया शिक्षक मिल जाएगा। जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होगी। दूसरा आदिवासी समुदाय के लोगों स्थानीय स्तर पर रोजगार और प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने बताया कि इसी मंशा को लेकर दो साल पहले समुदाय के ही एक व्यक्ति को अतिथि शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी है। जिसके बेहतर परिणाम भी सामने आने लगे हैं।

बच्चों में पहले डर, फिर झिझक, बाद में मिलने लगता है माहौल
अतिथि शिक्षक संजय उईके ने बताया कि वे प्राथमिक कक्षा के बच्चों पढ़ा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा परेशानी पहली कक्षा में आती है। जब बच्चा स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसमेें डर होता है। कुछ समय बाद यह धीरे-धीरे झिझक में बदल जाता है। इसके बाद बच्चे को माहौल मिलने लगता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।

परीक्षा के दौरान शुरू होता है आजीविका के लिए पलायन
जब बच्चों की परीक्षाओं का समय करीब आता है तो आदिवासी परिवारों का रोजगार के लिए पलायन करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। क्योंकि यह समुदाय की आजीविका से जुड़ा मामला है। अगले चार महीने बाद बारिश शुरू हो जाती है। इससे पहले उन्हें रोजमर्रा की जरूरतों को भी पूरा करना होता है। इस दौरान बच्चे भी अपने माता-पिता के साथ जाते हैं। वे वहां या तो अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते हैं या फिर खेती के काम में हाथ बंटाते हैं। इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है और वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं।

घर में बोलते हैं बारेला बोली, मैं अंग्रेजी भी सीखना चाहती हूं
डाबिया के प्राथमिक स्कूल में अपनी बहन सीमा और भाई करण के साथ कक्षा चौथीं में पढ़ने वाली संगीता पिता राधु बारेला ने बताया कि पहले हिंदी समझ में नहीं आती थी। फिर स्कूल के ही अन्य बच्चों से हिंदी में बातचीत की। स्कूल में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों को समझा। अब में स्कूल में हिंदी और घर पर बारेला बोली बोलती हूं। संगीता कहती है कि मैं अंग्रेजी पढ़ना चाहती हूं, लेकिन अंग्रेजी पढ़ाने वाला कोई शिक्षक स्कूल में नहीं हैं।

अंचल के अन्य स्कूलों की भी यही कहानी
इसी तरह जामन्य खुर्द के प्राथमिक विद्यालय में बारेला समुदाय के 13 बालक और 9 बालिका दर्ज हैं। स्कूल के निरीक्षण के दौरान एक बालिका ही स्कूल में मिली। शिक्षिका शांतिबाई ने बताया कि बच्चे होली का त्योहार होने से छुट्टी पर है। उन्होंने भी डाबिया की तरह भाषा संबंधी दिक्कत बताई। चूंकि शिक्षिका के आदिवासी समुदाय से होने के कारण वे बच्चों की स्थानीय बोली को आसानी से समझ लेती हैं। जामन्य खुर्द स्कूल से बारेला समुदाय की एक बालिका सीमा ही 10 कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर सकी है। उसकी आगे और पढ़ाई करने की इच्छा थी, लेकिन माता-पिता ने उसकी शादी कर दी।


मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

आदिवासियों को नहीं मिल रहा योजनाओं का लाभ

आदिवासी समुदाय की खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में वैसे तो शासन की गई योजनाएं संचालित हैं, लेकिन इनका जमीनीस्तर पर सही क्रियान्वयन नहीं होने से कई परिवारों को लाभ नहीं मिल रहा है। साथ ही संबंधित विभागों के जिन अधिकारियों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है वे भी अपने दायित्वों को लेकर गंभीर नहीं है। इनमें प्राथमिक स्कूल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, मध्याह्न भोजन, बीपीएल, एपीएल के अलावा ग्राम पंचायतों में बुुनियादी सुविधाओं को लेकर बनी योजनाएं शामिल हैं, जो आदिवासी परिवारों के लिए छलावा साबित हो रही है।

क्षेत्र में आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या कम होने से गर्भवती महिलाओं को इनके माध्यम से मिलने वाले पोषण अहार के रूप में दलिया, सत्तू, खिचड़ी और दवाइयां भी समय पर नहीं मिलती। वहीं, जिन केंद्रों मिलती है वहां भी मात्रा पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए उन्हें गांव के करीब तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। यह कहना है कि देवास जिले की खातेगांव तहसील के रतनपुर कांवड़ में रहने वाले 60 वर्षीय गिरधर बारेला का। उन्होंने बताया कि गांव चंदपुरा बीट वन परिक्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहां करीब 65-70 मकान हैं, जिनमें 25 परिवार रहते हैं।

क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केरोसिन और राशन का वितरण तो होता है। जब इसको लेकर समुदाय के लोगों से चर्चा की गई तो 35 वर्षीय छतरसिंह बारेला ने बताया कि यहां राशन की दुकान से राशन तो मिलता है, लेकिन समय से राशन दुकान नहीं खुलने से परेशानी का सामना करना पड़ता है। वहीं, राशन कम तौलना, दुकान का भी दूर होना, पिछले महीने राशन अगर किसी कारण वश अगर छूट जाता है तो नहीं देना। इस तरह की समस्या अक्सर बनी रहती है।

छतरसिंह ने बताया कि हम लोगों को सोसायटी से मिलने वाले राशन से खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। जब घर में अनाज की कमी होने लगती है तो राशन दुकान से ही राशन खरीदते है, लेकिन यहां कभी राशन अच्छा मिलता है तो कभी मध्यम दर्जे का होता है। कभी तो इसकी गुणवत्ता बिलकुल घटिया होती है। इसमें छोटे दाने और मिट्टी भी भरपूर होती है। इसे साफ करने पर करीब 10 फीसदी कचरा निकल जाता है।

उन्होंने बताया कि जब से पारंपरिक अनाज की आत्मनिर्भर खत्म हुई है तब से हमें राशन दुकानों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की राशन दुकानों से एक सीमा तक समुदाय के लोगों को खाद्य सुरक्षा मिलती है, लेकिन इससे हमें पर्याप्त पोषण अहार नहीं मिलता। छतरसिंह का मानना है कि समुदाय के लोगों ने लंबे समय से ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी जैसे मोटे अनाज का सेवन किया है। ऐसे में गेहूं और चावल मिलने के बाद भी हमारी खाद्य सुरक्षा अधूरी सी लगती है।

समुदाय के गिरधर बारेला बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में मनरेगा योजना संचालित है, लेकिन इसका लाभ समुदाय के लोगों को नहीं मिल रहा है। गांव में योजना के तहत तालाब और सड़क निर्माण जैसे काम कम ही हुए हैं जहां हुए हैं वहां भी लोगों को पैसा नहीं मिला है उन्हें आज भी पैसों के लिए भटकना पड़ रहा है। अब क्षेत्र में समुदाय के लोग मनरेगा में काम ही नहीं करना चाहते। उनका कहना है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे समय पर मिलना चाहिए। अगर पैसा नहीं मिल रहा है तो ऐसे काम का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इसके अलावा सरपंच और बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इससे हमारा समय भी खराब होता है और अन्य जरूरी काम भी प्रभावित होते हैं। वहीं, दूसरी जगह मजदूरी करने पर हमें नगद पैसा मिलता है। जाहिर है आदिवासी क्षेत्रों में मनरेगा योजना समुदाय के लोगों की खाद्य सुरक्षा को पूरा नहीं कर पा रही है।

आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों में शासन के निर्देश के बावजूद मेनू के मुताबिक बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं दिया जा रहा है। भोजन में बच्चों को पोषण देने वाली चीजे भी पर्याप्त नहीं मिलती है। समुदाय के लोगों ने बताया कि यहां शिक्षक अपनी मर्जी के मुताबिक समूह से भोजन बनवाते हैं। वहीं, बच्चों की उपस्थिति अधिक बताकर अनियमितता भी की जाती है। कई बच्चे स्कूल में भोजन करने के बाद घर आकर भी भोजन करते हैं। इस मामले की शिकायत करने पर व्यवस्था कुछ सुधरी, लेकिन थोड़े समय बाद हालात जस के तस हो गए।

ग्राम पंचायतों द्वारा विकास के लेकर किए जाने वाले कार्य भी समुदाय के लिए संतोषप्रद नहीं है। इन लोगों को पंचायत की ओर से बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही है। समुदाय के लोगों को खस्ताहाल सड़क, बिजली नहीं होना, पानी भी दूर से लाना जैसी समस्या है। सरपंच ने यहां एक भी विकास कार्य नहीं कराया है। ग्रामीणों को आरोप है कि हर साल सरकार विकास के नाम पर लाखों रुपए भेजती है। आखिर यह पैसा कहां जा रहा है? इसकी जांच होनी चाहिए।

ग्रामीण सीताराम ने बताया कि हम लोगों को बारिश में सबसे अधिक परेशानी होती है। यहां आसपास के क्षेत्र में सड़क पर कीचड़ हो जाता है। ऐसे में पैदल जाना भी मुश्किल होता है। हम लोगों ने सरपंच और दौरे के समय विधायक के सामने भी सड़क बनाने की मांग रखी थी, लेकिन वे भी आश्वासन देकर चले गए। सीताराम का कहना है कि जब तक इन क्षेत्रों का विकास नहीं होगा तो व्यवस्था कैसी सुधरेंगी। इस मामले में क्षेत्र के जागरूक लोगों ने बताया कि यह क्षेत्र वन ग्राम में आता है। इसलिए यहां बिजली और सड़क निर्माण में दिक्कत आ रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समुदाय के लोगों को जितनी जरूरत खाद्य सुरक्षा की है उतनी ही आज बुनियादी सुविधाओं की भी। अगर यह कहा जाए कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी। सरकार को इन चीजों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।

बुधवार, 27 जनवरी 2016

सहायबा में 13 बच्चे कुपोषण के शिकार

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र विदिशा के गंजबासौदा ब्लॉक में सहरिया आदिवासियों के बच्चों में कुपोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। प्रशासन के लाख दावों के बावजूद गंजबासौदा विकासखंड के आदिवासी बहुल्य क्षेत्रों में कुपोषण के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। इलाके में संचालित आंगनबाड़ी केंद्रों पर न तो मीनू के अनुसार पोषण आहार दिया जा रहा है और न ही बच्चों को केंद्र से जोडऩे की सार्थक पहल की जा रही है। इसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा विकासखंड में हर महीने पोषण आहार और स्वास्थ्य पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी कुपोषण कम नहीं होना विभाग की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़ा करता है।

आंकड़ों ने चिंता बढ़ाई...
ग्राम सहायबा में तो बच्चों में कुपोषण और कम वजन के आंकड़े चौकाने वाले हैं। इसके बावजूद महिला एवं बाल विकास विभाग गंभीरता नहीं दिखा रहा है। यहां गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या सात है। वहीं, कम वजन वाले छह बच्चे हैं। यह तो एक वानगी है, क्षेत्र में एक भी ऐसा भी गांव नहीं है तो कुपोषित या कम वजन के बच्चे न हों। सहायबा आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता ने बताया कि हाल ही में इन बच्चों को वजन किया गया, तो सात गंभीर कुपोषित और छह कम वजन के बच्चे सामने आए हैं।

हर महीने बढ़ रहे कुपोषित
प्रसून एनजीओ की कार्यकर्ता मिथलेस सेन ने बताया कि यहां पिछले महीने कुपोषित बच्चों की संख्या तीन थी। समय पर बच्चों को पोषण आहार और विशेष देखभाल नहीं होने से संख्या बढक़र अब सात हो गई है।

एनआरसी में भी उपेक्षापूर्ण व्यवहार
नबल सहरिया की पत्नी ने बताया कि उनका बेटा करण 16 माह का है। वह दोनों आंखों से देख भी नहीं सकता। वह न तो खाना-पीना करता है और न ही सामान्य बच्चों की तरह उसका व्यवहार है। इनके अनुसार, इनके पास उपचार कराने के लिए पैसा नहीं है। दिनभर खेतों में काम करने परिवार का पेट भरते हैं। पहले एनआरसी केंद्र में भी बच्चे को भर्ती कराया था। यहां दो तीन दिन रखने के बाद डॉक्टर्स और नर्सों का व्यवहार उपेक्षा पूर्ण होने से बच्चे के घर लेकर आ गए हैं।

विशेष जांच शिविर लगाने की जरूरत
जानकारों का कहना है कि प्रशासन को आदिवासी अंचलों में लगातार बढ़ रहे कुपोषण के मामले को लेकर स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभाग की ओर से विशेष जांच शिविर लगाने की जरूरत है।

विकासखंड क्षेत्र में 25 गांव चिह्नित
2002 में कराए गए सर्वे के अनुसार विकासखंड क्षेत्र के 25 गांव कुपोषण के लिए चिन्हित किए गए हैं। इनमें से अधिकांश उदयपुर क्षेत्र के ही हैं। उसके बाद से ही विकासखंड में कुपोषण को रोकने के लिए कार्य प्रारंभ हुए। बावजूद कुपोषण के मामले लगातार समाने आ रहे हैं।
यह हैं गंभीर कुपोषित
नाम पिता का नाम वर्ग उम्र
धनराज सुक्का आदिवासी 10 माह
राजेश गोपाल आदिवासी 9 माह
करण नबल आदिवासी 16 माह
कुंअरसिंह गुड्डा हरिजन 21 माह
साधन प्रकाश आदिवासी 18 माह
रूपस मुकेश हरिजन 18 माह
सुमतारा अमरसिंह आदिवासी 12

कम वजन वाले बच्चों की स्थिति
नाम/पिता/वर्ग/उम्र
राधा/अमर सिंह/आदिवासी/34 माह
सोनिया/प्रकाश/आदिवासी/39 माह
लक्ष्मी/देशराज/हरिजन/1 साल
सौरभ/मेहरवान/लौधी/1 साल
बादल/दुरक/आदिवासी/15 माह
विकास/सौदान/आदिवासी/34 माह

''बाल विकास परियोजना अधिकारी की पोस्ट खाली है। कुपोषण चिन्हित गांवों का नए सिरे से सर्वे कराया जाएगा। पोषण आहार और आंगनबाड़ी की जांच कराएंगे। बच्चों को पोषण आहार सही ढंग से मिल रहा है या नहीं, कुपोषण की रोकथाम के लिए प्रयास किए जाएंगे।''
सीएम ठाकुर, एसडीएम गंजबासौदा


Oct 07, 2015 को भास्कर डॉट कॉम में प्रकाशित

सोमवार, 25 जनवरी 2016

यहा दालानों में चलते हैं अस्पताल क्योंकि....

मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी तरह से बदहाल हैं। कई जगह डॉक्टरों की कमी है, तो कहीं अस्पताल भवन ही नहीं हैं। जब अस्पतालों की स्वास्थ्य सुविधाओं का विदिशा जिले के गंजबासौदा ब्लॉक में जायजा लिया, तो स्थिति बहुत ही गंभीर नजर आई। विकासखंड में 28 उप स्वास्थ्य केन्द्र हैं, इनमें से सिर्फ 12 केन्द्रों के भवन बने हुए हैं। छह स्वास्थ्य केंद्र भवन डेड घोषित किए जा चुके हैं। 15 स्थानों पर स्वास्थ्य केन्द्र किराए के मकान या फिर ग्रामीणों के दालानों में चलते हैं। इसलिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी नहीं जाते।
सड़क पर बसे गांवों को छोड़कर दूरदराज क्षेत्र और कच्चे मार्गों के किनारे स्थापित उप स्वास्थ्य केन्द्र में ताले पड़े रहते हैं। जो उप स्वास्थ्य केन्द्र सड़क किनारे गांव में बने हुए हैं, उनमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता आते हैं लेकिन दूर दराज के गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता महीनों नहीं जाते। यहां तक कि इन गांवों में टीकाकरण तक नहीं हो रहा है। सिर्फ 9 केन्द्र ऐसे हैं जहां कामकाज ठीकठाक चल रहा है।
ये भवन पड़े हैं क्षतिग्रस्त
उप स्वास्थ्य केंद्र ककरावदा, सिरनोटा, ऊहर, पिपराहा, भिदवासन, हमीदपुर के भवन कंडम घोषित किए जा चुके हैं। इससे इन गांवों में स्वास्थ्य केंद्रों का कामकाज लोगों के घरों की दालान और सार्वजनिक भवनों के भरोसे किया जा रहा है। कई उप स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ कर्मचारियों के भरोसे चल रहे हैं। डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं। केन्द्रों की मरम्मत के लिए हर साल दस हजार रुपए मिलते हैं, लेकिन डेढ़ दर्जन से ज्यादा उपस्वास्थ्य केंद्रों की मरम्मत नहीं की गई।
भवन बना फिर भी किराए के मकान में
ग्राम उदयपुर में उप स्वास्थ्य केन्द्र का नया भवन दो साल से तैयार है, लेकिन यहां अभी भी उपस्वास्थ्य केन्द्र किराए के मकान में चल रहा है। नए भवन में स्वास्थ्य केन्द्र स्थानांतरित नहीं किया जा रहा। जिस किराए के भवन में उपस्वास्थ्य केन्द्र चल रहा है, उसमें कर्मचारी को बैठने तक फर्नीचर नहीं है। नए भवन का स्वास्थ्य विभाग द्वारा तीन बार निरीक्षण भी किया जा चुका है। उसके बाद भी भवन हस्तांतरण का मामला अटका है।
नाम का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
त्योंदा तहसील मुख्यालय पर 30 बिस्तरों का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है, लेकिन केंद्र पर एक्स-रे, पैथालॉजी की सुविधा नहीं है। कभी मशीन खराब रहती है कभी मशीन चलाने वाला कर्मचारी नहीं रहता तो कभी सामग्री नहीं होती। इसी तरह ग्राम गमाखर का उप स्वास्थ्य केंद्र कई सालों से कंपाउंडर के भरोसे चल रहा है। वहां डॉक्टर का पद खाली पड़ा है।
नीम-हकीमों के भरोसे ग्रामीण
विकासखंड में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं भगवान भरोसे चल रही हैं। ग्रामीणों का उपचार नीम-हकीमों से कराना पड़ रहा है। उप स्वास्थ्य केन्द्रों पर आयुष और होम्योपैथिक डॉक्टरों की पद स्थापना भी की गई है, लेकिन वह भी उपचार नहीं दे रहे हैं। उपचार के अभाव में कई ग्रामीणों की हालत ऐसी हो जाती है कि उनका उपचार तहसील मुख्यालय पर भी संभव नहीं रहता।
जांच की जाएगी
डेड भवनों के स्थान पर नए भवन बनाने के प्रस्ताव भेजे जा चुके हैं। जहां तक ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों का प्रश्न है। उनकी सफाई पुताई के लिए राशि दी जाती है। यदि राशि का उपयोग नहीं किया गया तो उसकी जांच की जाएगी।
डॉ. धर्मेंद्र रघुवंशी, मेडिकल अधिकारी, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र
Oct 30, 2015. Bhaskar.com

बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही आंगनबाड़ी

दोनों को दूरी दो किमी होने से बारोद टपरा के आदिवासी बच्चों को नहीं भेजते

विदिशा जिले में गंजबासौदा विकासखंड के बारोद आदिवासी टपरा का कोई भी बच्चा न तो स्कूल जाता है और न ही आंगनबाड़ी। क्योंकि यहां से आंगनबाड़ी केंद्र और स्कूल की दूरी दो-दो किलोमीटर दूर है। बारोद आंगनबाड़ी में तो 30 आदिवासी बच्चों के नाम भी दर्ज हैं। जब भी कोई काम होता है तो इनके माता-पिता महीने में एक-दो बार आंगनबाड़ी आकर पोषण आहार लेकर चले जाते हैं।

आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता लीला शर्मा ने बताया कि अगर बच्चों के लिए उनके टपरे के आसपास ही केंद्र खुल जाए तो इन बच्चों को आंगनबाड़ी का सही मायने में लाभ मिल सकता है। इस समस्या को लेकर महिला बाल विकास विभाग गंजबासौदा के अफसरों को भी बताया जा चुका है। इसके बावजूद अब तक कोई पहल नहीं की गई है। रहवासी राधेश्याम शर्मा ने बताया गांव की सीमा में आवासीय जगह न होने से आदिवासियों को राजस्व भूमि पर बसाया गया था। उसी समय से सहरिया परिवार वहां रह रहे हैं।

टपरा के लखपत सिंह सहरिया ने बताया कि बच्चों को जंगल से होकर दो किमी दूर बारोद जाना पड़ता है। हम रोज तो बच्चों को आंगनबाड़ी नहीं ले जा सकते। आवागमन की कोई सुविधा नहीं है। पूरा रास्ता जंगल से होकर गुजरता है। आसपास पत्थरों की बड़ी-बड़ी खदानें हैं। जंगल में कई जानवर भी रहते है। जिससे कभी भी हादसा हो सकता है। हमें मजदूरी के लिए खेतों पर भी जाना पड़ता है। अगर यह केंद्र हमारे टपरे के आसपास ही खुल जाए तो बच्चों को इसका फायदा मिलेगा।

टपरे के रूपसिंह सहरिया ने बताया कि यहां से प्राथमिक स्कूल भी दो किमी दूर है। इसलिए बड़े बच्चों भी जाना पसंद नहीं करते। कभी-कभी तो हमें ही बच्चों को लेकर जाना और आना पड़ता है। कई बार सरपंच और जनप्रतिनिधियों के सामने भी हमने इस समस्या को रखा। लेकिन हम आदिवासियों की सुनता कौन है।

बुनियादी सुविधाएं भी नहीं
60 वर्षीय पानबाई ने बताया कि दो साल पहले यहां बिजली के खंभे तो लगा दिए हैं, लेकिन तार अभी तक नहीं डले। पूरी सड़क उबड़-खाबड़ है। यहां वाहन आता तो दूर पैदल चलना भी मुश्किल होता है। हैंडपंप एक भी नहीं है, कुएं का पानी पीते है। कुआं भी आसपास से कच्चा है। इसलिए गंदगी भी कुएं में मिलती है।

18 किमी दूर है अस्पताल
वीर सिंह का कहना है कि हमें इलाज के लिए 18 किमी दूर त्योंदा जाना पड़ता है। डिलीवरी के दौरान महिलाओं को कच्चे रास्ते से अस्पताल ले जाना बहुत मुश्किल होता है। बारिश में तो समस्या और बढ़ जाती है। इस दौरान डिलीवरी गांव में ही अप्रशिक्षित दायियों के माध्यम से करानी पड़ती है। टपरे पर आदिवासियों के लिए शौचालय तक नहीं बनाए गए हैं।

मौत भी हो चुकी है कुपोषण से
कुछ समय पहले पास के नूरपूर टपरा में कुपोषण और समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण गंगा पिता मिठ्‌ठी की मौत भी हो चुकी है। इसके बाद भी प्रशासन ने आदिवासियों की समस्याओं को लेकर गंभीरता नहीं बरत रहा है। इस मामले में गंजबासौदा के बाल विकास अधिकारी ने बताया कि बारोद गांव का हिस्सा है टपरे लेकिन नए आंनवाड़ी केंद्र खोलने के प्रस्ताव भेजे गए हैं। जैसे ही नए केंद्रों को अनुमति मिलेगी। वहां सहायक केद्र खोला जाएगा।

03 नवंबर 2015 को प्रकाशित

रविवार, 24 जनवरी 2016

व्यवस्था से पिसते आदिवासी


मध्यप्रदेश सरकार आदिवासी अंचलों में बारेला समुदाय के लोगों की पोषण की सुरक्षा और कुपोषण को दूर करने के लाख दावे करे, मगर जमीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है। यहां आदिवासी समुदाय के लोगों को आज भी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। बरसों पहले परंपरागत आदिवासी जीवन जीने वाला यह समुदाय आज पेट भरने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय स्तर पर रोजगार के अवसर सीमित होना, कम खेती और उपजाऊ जमीन का न होना, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान फसलों को क्षति पहुंचना, आजीविका का अन्य जरिया न होना और मोटे अनाज वाली फसलों का उत्पादन कम होना जैसी समस्याएं समुदाय के लोगों के लिए संतुलित पोषण में बाधा बन रही है।

इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जन्म लेने वाले अनेक बच्चे कम वजन के पैदा हो रहे हैं। ऐसी स्थितियां यहां पहले नहीं थीं। इसकी वजह इनकी जीवनशैली थी। वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा ऐसे आदिवासी परिवारों को जागरूक करने और कुपोषण दूर करने के लिए कई योजनाएं भी आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से संचालित है, लेकिन जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदाय को इसका सीधा लाभ नहीं मिल रहा है।

हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया, जामन्या खुर्द, कालाकहूं, आर्या, गेनाढ़ाना आदि इलाकों में सुपोषण के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनवाड़ी केंद्र तो संचालित है, लेकिन इनका लाभ यहां के आदिवासी परिवारों को नहीें मिल रहा है। अगर हम ग्राम डाबिया और आर्या की बात करें तो यहां करीब डेढ़ साल से आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से बच्चों को न तो नाश्ता मिल रहा है और न ही भोजन। वहीं, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार के रूप मेें मिलने वाला दलिया भी महीने में एक पैकेट ही मिल पा रहा है, जबकि नियमानुसार प्रत्येक सप्ताह एक पैकेट दिया जाने का प्रावधान है।

अंचल में बारेला आदिवासी समुदाय के लोग खेतों के आसपास मकान बनाकर रहते हैं। कुछ इसी तरह के हालात गेनाढ़ाना के हैं। यहां नबंवर से अब तक आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चों को न तो नाश्ता मिला और न ही भोजन।
बारेला आदिवासी अपनी पंरपरागत दिनचर्या से दूर होकर वर्तमान समय के साथ तालमेल भी नहीं बैठा पाए हैं। पहले जंगलों पर आश्रित रहने वाला यह समुदाय कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसलों को उत्पादन करता था। जिसमें प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व होते थे। इसके अलावा कई प्रकार के कंद भी इनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे।

पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद समुदाय स्वास्थ्य का अच्छा जानकार था। इसके अलावा वे पर्यावरण को लेकर भी जागरूक थे। लेकिन वनों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद आदिवासियों को जंगलों से दूर होना पड़ा। परंपरागत औषधियों और पोषण देने वाली चीजें भी उनसे दूर होती चली गई है। सीमांत खेती और आजीविका का जरिया नहीं होने के कारण अब उन्हें पेट भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में गर्भवती महिलाओं को पोषण देने वाली परंपरागत चीजों के उपलब्ध नहीं होने पर इसका सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है और कम वजन, खून की कमी जैसी परेशानियां सामने आ रही हैं।

आंगनवाड़ी केंद्र डाबिया में आदिवासी समुदाय के 126 बच्चे दर्ज हैं। इनमें बारेला समुदाय के शून्य से दो माह 11 दिन तक के 39 बालक और 35 बालिका शामिल है। वहीं, तीन माह से पांच माह ग्यारह दिन तक के 26 बालक और 26 बालिका हैं। इनमें पूरे गांव में आदिवासी समुदाय के कम वजन और कुपोषित बच्चों की संख्या आठ है। इसमें ग्रेड-4 में शामिल बच्चों की स्थिति कम वजन के रूप में दर्शायी गई है। वहीं सी में कुषोषित श्रेणी के बच्चों को दर्शाया गया है। इनमें से कुछ बच्चों का इलाज एनआरसी केंद्र में चल रहा है।

आदिवासी अंचल डाबिया में कुपोषण की ऐसी स्थिति होने के बाद भी यहां अब तक न तो सुपोषण केंद्र और न ही स्नेह शिविर खोलने की योजना बन पाई है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पोषण की अधिक जरूरत होती है। इसलिए आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से पोषण आहार बांटने की योजना भी शासन स्तर पर है, लेकिन जिला मुख्यालय के अफसरों की अनदेखी और तहसील स्तर पर जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही से महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित योजनाएं ठप हैं।

आदिवासियों का कहना है कि इस मामले की शिकायत यहां के अफसरों से भी कर चुके हैं बावजूद इसके अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। ग्राम आर्या की फुलवती बाई का कहना है कि आंगनवाड़ी केंद्र की निगरानी और संचालन के लिए पंचायत स्तर पर सुपरवाइजर को नियुक्त किया गया है, लेकिन यहां करीब छह महीने से किसी ने भी निरीक्षण नहीं किया।

हितग्राही महिलाओं ने कहा कि नियमानुसार आंगनवाड़ी केंद्र पर प्रत्येक मंगलवार को मंगल दिवस मनाने का शासन का आदेश है। इसके लिए 50 रुपए का भुगतान भी महिलाओं को किया जाता है। पहले मंगलवार गोद भराई, दूसरे मंगलवार अन्नप्राशन, तीसरे मंगलवार जन्मदिवस और चौथे मंगलवार को किशोरी दिवस मानने के निर्देश हैं। यहां के अधिकांश आदिवासी बारेला समुदाय के अधिकांश लोगों को इन दिवसों की न तो जानकारी है और न ही आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से इन्हें जागरूक किया जाता है। आर्या के ही गंगाराम ने कहा कि केंद्र के लिए यहां शासन ने नवीन भवन का निर्माण तो करा दिया, लेकिन यहां एक दिन भी कक्षाएं नहीं लगीं। रखरखाव नहीं होने से भवन के दरवाजे और खिड़किया भी टूट गए हैं।

कुल मिलाकर आदिवासी अंचल के गांवों की उपेक्षा से यहां के पारंपरिक जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मंगलवार को मंगल दिवस बना देने भर से स्थितियां सुधर नहीं सकतीं। आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों की परंपरागत भोजन शैली को उन्हें पुन: उपलब्ध करवाया जाए, बजाए इसके कि वे पांच सितारा होटल की सर्वाधिक आकर्षक प्रस्तुति बनकर रह जाएं।

Tuesday , May 13,2014 को देशबन्धु में प्रकाशित

शनिवार, 23 जनवरी 2016

घटते जंगल और सिमटते ज्ञान से कम हुआ आदिवासी जनजाति में जड़ी-बूटियों का उपयोग

आदिवासी जनजातियों का सदियों से जंगल से गहरा रिश्ता रहा है। जंगल की हरी भरी गोद में रहकर उन्होंने पौधे और तमाम तरह की जड़ी बूटियों का व्याकरण सीखा और गढ़ा। जिसे वे आज भी स्थानीय स्तर पर औषधि के रूप में समुदाय के लोगों के इलाज करते हैं। आदिवासी जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल से पहले इन्हें पूंजते हैं, ऐसी मान्यता है कि इससे जड़ी-बूटियों की असरकारक क्षमता दोगुनी हो जाती है। वहीं, इनकी जानकारी सार्वजनिक करने पर औषधि गुणों में कमी आ जाती है। आदिवासियों द्वारा एकत्र इन जड़ी-बूटियों और इनके बताए गए उपयोगों को आधुनिक विज्ञान भी तथ्यात्मक मानता है। इसी का परिणाम है कि आज जंगल की यह औषधि आदिवासियों के अलावा आम लोगों द्वारा भी उपचार में प्रयोग की जा रही है।

विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड में सुदूर जंगलों में रहने वाले बुजुर्ग सहरिया आदिवासी वन औषधियों के अच्छे जानकार हैं। उन्हें बरसों पुरानी जंगल आधारित परपंरा पूर्वजों से बिरासत में मिली है। जिसे वे आज तक आत्मसात किए हुए है। सहरियाओं की जड़ी बूटियों और उनकी संस्कृति से संबंधित किसी भी परपंरा का लिखित साहित्य मौजूद नहीं होने से यह आज भी बरसों से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तातंरित होता आ रहा है, लेकिन वर्तमान में स्थिति यह है कि समुदाय की युवा पीढ़ी उपचार की इस परंपरागत पद्धति को लेकर गंभीर नहीं है।

विकासखंड के ग्राम खोंगरा मालूद के जंगल में उम्र की 75 बसंत गुजार चुके घासीराम सहरिया वनोषधियों के जानकार है। वे बताते है कि इससे पहले आशाखेड़ी, लेटनी (तहसील कुरवाई ) के वन क्षेत्र में हम रहते थे। माता-पिता के अलावा परिवार में हम तीन भाई थे। पिता यही जंगल में खेती और मजदूरी करते थे। करीब 60 साल पहले यहां भीषण बाढ़ आई, जिसमें समुदाय के लोगों का सारा सामान और मवेशियां बाढ़ में बह गए। इस हादसे में घासीराम के पिता और एक भाई भी बाढ़ के काल में समा गए। उस समय वहां आदिवासियों के करीब 10 घर थे। सभी की गृहस्थी का सामान भी बाढ़ में बह गया था। तब घासीराम के उम्र करीब 10-12 साल थी। तब समुदाय के अन्य लोगों के साथ वे अपने बडे भाई के साथ मजदूरी और आजीविका की तलाश में भटकते-भटकते खोंगरा मालूद में आकर बस गए।

घासीराम बताते है कि 60-65 साल पहले हम सहरियाओं की पूरी संस्कृति जंगल पर आधारित थी। जंगल में ही रहकर मजदूरी करते थे। तब दिनभर काम करने के बाद चार पाई अनाज या 10 रुपए मिलते थे। इस दौरान जंगल में मिलने वाली औषधियों को जानने की जिज्ञासा होने पर घासीराम ने समुदाय के बुजुर्ग लोगों से उनके साथ रहकर उपचार का तरीका भी सीख लिया। अब वे औषधियों से समुदाय के लोगों को इलाज करते है। वे जिस इलाके में रहते है उसे करिया पहाड़ या गढ़ी पहाड़ के नाम से जाना जाता है।

आदिवासियों के जंगल से जुड़ी औषधियों सार्वजनिक नहीं करने के पीछे उनका तर्क है कि अगर औषधियों की जानकारी सभी लोगों को पता चल जाएगी तो इसका हर्श भी वहीं होगा जो आज जंगलों को हो रहा है। जिस तरह तेजी से जंगल कट रहे है ऐसे ही एक दिन यहां की बहुमूल्य औषधि भी खत्म् हो जाएगी। करीब चार-पांच दशक पहले आदिवासी 35-40 प्रतिशत इलाज वन औषधियों के माध्यम से करते थे। पूर्वजों का यह ज्ञान आने वाले पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं करने से इनका प्रतिशत वर्तमान में घटकर10-15 प्रतिशत रह गया है। वहीं, जंगलों के लगातार नष्ट होने और आदिवासियों को वन क्षेत्रों से खदेड़ने के कारण इस्तमाल की जाने वाली औषधियों के उपयोग में भी कमी आई है। अगर इसे समय रहते संरक्षित नहीं किया गया तो सहरियाओं की परंपरागत औषधि पूरी तरह से खत्म हो जाएगी।

उनकी एक मान्यता यह भी है कि दवा की जानकारी सार्वजनिक करने से इसका असर कम हो जाता है। इसलिए पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को इसका ज्ञान नहीं देते। इसके पीछे इनके नियम और पर्यावरण के प्रति अटूट आस्था है। वहीं, युवओं में भी इस परंपरागत उपचार व्यवस्था में रूचि नहीं है। इसके पीछे उनका तर्क है कि पहले अस्पताल नहीं थे तो इस तरह की औषधियों की आवश्यकता थी। आज उपचार के लिए कई विकल्प खुले हैं। उनका कहना है कि अगर जड़ी बूटियों और टोटके के भरोस बैठे रहे और समय पर उपचार नहीं कराया तो बीमारी भी गंभीर रूप ले सकती है। वही, कुछ लोगों को मानना है कि वर्षों बाद भी वन औषधि से उपचार एक सेवा है। इसके रोजगारपरक नहीं होने से भी समुदाय के युवा इस पद्धति से उपचार करने में रूचि नहीं ले रहे हैं।

घासीराम सहरिया बताते है कि जंगल से औषधि लाने की एक बरसों पुरानी परंपरा रही है। जब भी हमें जंगल से जड़ीबूटी लाना होता है उससे एक दिन पहले या कभी तत्काल भी जड़ीबूटी के रूप में पेड़ में विराजमान देवता का पूजन, हवन और उस जड़ी के चमत्कारिक असर के लिए प्रार्थना करते है। इससे जड़ीबूटी का असरकारक क्षमता में दोगुनी वृद्धी हो जाती है। आदिवासी औषधि के लिए पेड़ों की जड़, तना, फूल, पत्तियां, मिट्‌टी और छाल का उपयोग करते है। इन पांच चीजों के मिलान करने से जड़ी प्रभावकारी हो जाती है।

विकास संवाद मीडिया फैलाशिप के अध्ययन के दौरान और निवेदन पर खोंगरा मालूद के बुजुर्ग घासीराम सहरिया ने न केवल कुछ औषधियों की जानकारी साझा की बल्कि उन्होंने जंगल में हमारे साथ भ्रमण कर दवाईयों के पेड़ों से भी परिचय कराया। यहां पाई जाने वाली औषधि और उनके उपयोग की विधि कुछ इस तरह है।

सेमल : सेमल का पौधा अपने आप में कई औषधि गुण को खजाना है। इसके नए पौधे की जड़ को मूसला (कंद) करते है, जो बहुत पुष्टिकारक, नपुंसकता को दूर करने में उपयोग होता है। सेमल से निकलने वाला गोंद मोचरस कहलाता है। यह अतिसार को दूर कर ताकत बढ़ाता है। इसके बीज मदकारी होते है। वहीं, काँटों में फोड़े, फुंसी, घाव, आदि दूर करते हैं। यह जंगल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। समुदाय के लोग गर्मी के दिनों में इसे खोदकर घर ले आते हैं। जिसे वे कूटकर और सुखाकर इसका पावडर बनाकर इसका उपयोग करते हैं। इसे गर्भवती महिलाओं सहित समुदाय के सभी लोग ताकत बढ़ाने के लिए खाते हैं।

महुआ : इसे आदिवासियों की किशमिश कहा जाता है। महुआ वातनाशक और पोष्टिक है। यदि जोड़ों पर इसका लेपन किया जाय तो सूजन कम होती है और दर्द खत्म होता है। इससे पेट की बीमारियों से मुक्ति मिलती है। महुआ के ताजे फूलों का रस निकालकर उससे बरिया, ठोकवा, लप्सी जैसे अनेक व्यंजन बनाए जाते हैं।

करोंदा : करोंदा के पेड़ का आदिवासियों द्वारा सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है। घासीराम बताते है कि करौंदे का रोजाना सेवन करने से महिलाओं को खून की कमी (एनीमिया) से छुटकारा मिलता है। वहीं, करोंदे का रस हाई ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है। इसके फल का चूर्ण खाने से पेट दर्द में दूर होता है, भूख बढ़ती है, दस्त की शिकायत दूर होती है, ज्यादा प्यास भी नहीं लगती। करोंदे के पत्ते दस्त में तेजी से फायदा करते हैं। सूखी खांसी में करौंदा की पत्तियां से निकलने वाला रस ज्यादा गुणकारी होता है। दांत संबंधी बीमारियों में भी फायदा करता है। सर्प के काटने पर करौंदे की जड़ को पानी में उबालकर इसका काढ़ा पिलाने से रोगी को लाभ मिलता है।

शमी : शरीर की गर्मी दूर करने के लिए शमी की पत्तियों का इस्तेमाल होता है और जिन्हें अत्यधिक पेशाब जाने की समस्या हो, उन्हें भी शमी की पत्तियों का रस सेवन कराते है।

सिंघाड़े : सिंगाड़ा का फल नाक से नकसीर यानी खून बहने पर फायदा करता है। प्रसव होने के बाद महिलाओं में कमजोरी आ जाती है। इसे दूर करने के लिए महिलाओं को सिंघाड़े का हलवा खाना चाहिए। वे महिलाएं जिनका गर्भाशय कमजोर हो वे सिंघाड़े का हल्वे का खाए तो फायदा मिलता है। इसके आलावा स्वेत प्रदर से पीड़ित महिलाएं सिंघाड़े के आटे का हलवा शाम को रोजाना खाने से लाभ मिलता है। यदि सूखे या खूनी बवासीर हो तो सिंघाड़े का सेवन से यह बीमारी ठीक हो जाती है। सिंगाड़े के आटे का लड्डू बनाकर नियमित सेवन करने से कई बीमारियां दूर होती है।

गुड़हल : आदिवासी इसके फूलों को तनाव दूर करने और नींद के लिए उपयोग में लाते हैं। गुड़हल के ताजे लाल फूलों को पीस कर बालों में लगाने से गुड़हल कंडीशनर की तरह कार्य करता है।

दूब घास: जंगल में सहरिया आदिवासी शारीरिक स्फूर्ति के लिए दूब घास का उपयोग करते है। नाक से खून आने पर ताजी व हरी दूब का रस दो-दो बूंद नथुनों में टपकाने से खून बंद हो जाता है। लगभग 15 ग्राम दूब की जड़ को एक कप दही में पीसकर लेने से पेशाब करते समय होने वाले दर्द से निजात मिलती है। दूब घास की पत्तियों को मिश्री डालकर और छानकर रोजाना पीने से पथरी की बीमारी दूर होती है।

कनेर: साधारण सा दिखने वाला कनेर का पेड़ बुखार से लेकर सर्प दंश और बिच्छु के काटने तक में इसका उपयोग होता है। कनेर की पत्ती को पीस कर दूध बालों पर लगाने से गंजापन ठीक हो जाता है।

जंगल प्याज: श्वांस रोग, बच्चों में कफ की शिकायत, भोजन का पाचन होकर दस्त साफ होता है। इसके लिए जंगली प्याज का रस निकालकर रोजाना 5-10 बूंद रोजाना सेवन करना होता है।

चिरोटा :चिरोटा का पौधा मैदानी इलाकों सहित जंगलों में भरपूर होता है। यह साधारण से दिखने वाले पौधे में कई औषधि गुण विद्धमान है। घासीराम बताते है कि चिरोटा की पत्तियों और बीजों को के उपयोग से पेट की मरोड़, दाद, खाज, खुजली और दर्द दूर होता है। इसकी पत्तियों को बारिक पीसकर घाव पर लगाने से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। वही, चिरोटा की पत्तियों और बीज का काढा बनाकर पिलाने से पीलिया में फायदा होता है। इसके आदिवासी अंचलों और ग्रामीण इलाकों में पत्तियों का उपयोग बारिश के दिनों में भाजी के रूप में किया जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इसके गुणों को एंटी बैक्टिरियल मानता है।

बेल: बेल के पत्ते दस्त और हैजा नियंत्रण में उत्तम हैं। इसके पके फलों के गूदे का रस या जूस तैयार करके पिलाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

तुलसी : जंगल और रहवासी क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध होने वाली तुलसी में कई विशेष गुण है। इसका सहरिया बरसों से इस्तमाल करते आ रहे हैं। तुलसी का अर्क ब्लड कॉलेस्ट्रोल, एसिडिटी, पेचिस, कोलाइटिस, स्नायु दर्द, सर्दी-जुकाम, सिरदर्द, उल्टी-दस्त, कफ, चेहरे की क्रांति में निखार, मुंहासे, सफेद दाग, कुष्ठ रोग, मोटापा कम, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, मलेरिया, खांसी, दाद, खुजली, गठिया, दमा, मरोड़, आंख का दर्द, पथरी, नकसीर, फेफड़ों की सूजन, अल्सर, पायरिया, शुगर, मूत्र संबंधी रोग आदि रोगों में फायदेमंद है।

अशोक की छाल: महिलाओं के लिए अशोक का पेड़ वरदान है। गर्भाशय की बेहतरी, मासिक धर्म संबंधित रोगों आदि के निवारण के लिए यह उत्तम है। लगभग 50 ग्राम अशोक की छाल को दो कप पानी में खौलाया जाए जब तक कि यह आधा शेष ना बचे। इस काढे को ठंडा होने पर प्रतिदिन एक गिलास पीने से तेजी से फायदा होता है।

मक्का: ऊर्जा, ताकत और पीलिया रोग में लाभकारी है। आदिवासियों के अनुसार मक्के के दानों में वे सभी महत्वपूर्ण तत्व होते हैं जिनकी वजह से मांस-पेशियां और हड्डियां मजबूत बनती हैं। आदिवासी खून की कमी होने पर रोगी को मक्के की रोटियां खाने की सलाह देते हैं।

गिलोय : गिलोय, गोखरु, आंवला, मिश्री समान भाग मिलाकर 1-1 चम्मच 2 बार दूध से लेने पर शारीरिक ताकत बढ़ती है। इसे गर्भवती महिलाओं की कमजोरी दूर करने के लिए भी दिया जाता है। वहीं, गिलोय व सौंठ के चूर्ण खिलाने से हिचकी बंद हो जाती है। घृत के साथ सेवन करने से वात रोग दूर होता है। गुड के साथ सेवन करने से कब्ज नहीं होती। इसके अलावा गिलोय, हरड, नागर मोथा इन सबको चूर्ण बनाकर शहद के साथ सेवन करने पर चर्बी कम होकर मोटापा दूर होता है।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

पोषण की सुरक्षा से जुड़़ी थी सामाजिक परंपरा


सहरिया आदिवासियों में उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित रीति रिवाज और परंपराएं बहुत सशक्त थी। इनके पीछे कुछ धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं थी। जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समुदाय के लोगों के लिए सीधे तौर पर पोषण की सुरक्षा से जुड़ी थी। इसमें ईश्वर, स्थानीय देवि देवताओं और टोने टोटके के प्रति अटूट आस्था थी। अन्य समुदायों की तरह पूजा और मनौती पूरी होने पर बलि देने के बाद सामूहिक भोज की परंपरा भी थी।


ऐसा माना जाता है सहरिया अपनी परेशानी, लाभ-हानि और बीमारी के समय स्थानीय देवताओं से मनौती मांगते थे। इसके पूरी होने पर सहराना और गांव के आसपास पूर्वजों द्वारा स्थापित देवताओं के ओटले पर जाकर पूजन कर मुर्गे और बकरों की बलि देते थे। जिसे बाद में सभी लोग इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। इस तरह समुदाय के लोगों को मांस के रूप में एक दिन का पोषण मिल जाता था। सहरिया में यह सिलसिला पर्वों और त्योहारों पर विशेष रूप से चलता था। समुदाय में आज भी देवताओं के प्रति आस्था में कोई बदलाव तो नहीं आया है, लेकिन बलि देने की परंपरा में परिवर्तन जरूर दिखाई देने लगा है। यह कहना है कि विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड के तहत आने वाले गांव आमेरा निवासी 60 वर्षीय हरिराम सहरिया का।

वे बताते हैं कि स्थानीय देवी देवता समुदाय के लोगों को बुरी आत्माओं और आपदाओं से बचाते हैं। इसके अलावा बीमारियों से भी रक्षा करते हैं। उनका मानना है कि देवताओं में इतनी शक्ति होती है कि वे बांझ स्त्री को भी संतान देने का सामर्थ रखते हैँ। हमारे पूर्वजों को जब भी जंगल में कोई परेशानी होती थी तो इन्हीं देवताओं की शरण में जाकर उनकी पूजा कर मनौती मांगते थे। जिसके पूरी होने पर बलि देते थे।



इस तरह सहरिया में पूर्वजों द्वारा स्थापित आस्था का यह सिलसिला आज तक जारी है, लेकिन इसमें पहले की तुलना में अब कमी आई है। पहले बलि के लिए मुर्गे और बकरे आसानी से और कम कीमत में उपलब्ध हो जाते थे। इसलिए सहरिया भी बलि की मनौती को आसानी से पूरा कर पाता था। अब समय के साथ परंपरा में भी बदलाव आ गया है। बलि पर रोक लगने और आर्थिेक स्थिति ठीक नहीं होने से अब सांकेतिक बलि भी दी जाने लगी है। हरिराम बताते है कि इस सामाजिक परंपरा के पीछे पोषण की सुरक्षा भी जुड़ी हुई थी।

पूर्वजों के मिले परंपरागत ज्ञान के आधार पर ग्राम खोंगरा के 35 वर्षीय प्रताप सहरिया बताते हैं कि समुदाय में करीब15 देवि देवताओं को प्रमुख रूप से पूजा जाता है। इनमें ठाकुर देव, भैंरो देव, परीत देव, नाहर देव, दरेठ देव, कारस देव, भूमिया देव, नरसिंह देव, हीरामन देव आदि शामिल है। इसके अलावा कैला माता, कंकाली माता, बीजासन देवि, तेजाजी महाराज के साथ जिंद का पूजन करने की परंपरा है। प्रताप बताते हैं कि देव की पूजा करना जहां समुदाय की धार्मिेक और सामाजिक मान्यता है। वहीं, सहराना के सभी लोगों द्वारा देव के ओटले पर जाकर पूजा के बाद सामूहिक भोज करना हमें पोषण की सुरक्षा प्रदान करता है। खास बात यह है कि इस दौरान सभी सहरिया अपनी क्षमता के मुताबिक राशि इकट‌्ठा कर इस कार्यक्रम में शामिल होते है। इससे समुदाय के लोगों में सामाजिक सद्भावना भी बनी रहती है।


प्रताप समुदाय के स्थानीय देव के संबंध में बताते है कि ठाकुर देव बच्चों और बूढ़ों की रक्षा करने वाला देवता है। बच्चों को निमोनिया और बूढ़ों को पसली चलने पर ठाकुर देव की मनौती की जाती है। रोगी के ठीक होने पर शराब और बकरे की बलि देने की परंपरा पुर्वजों के समय से चली आ रही है। वहीं, भैंरो देव को पूजा देने से बांझ स्त्रियों को पु्त्र की प्राप्ति होती है। मनौती पूरी होने पर बकरे और मुर्गे की बलि दी जाती है। जब तक यह पूजा नहीं होती घर में झूला नहीं बांधा जाता। भैंरो देव की स्थापना पेड़ के नीचे या खुले चबूरते पर एक सिंदूर लगे लंबे या गोल पत्थर के रूप में होती है। इसी तरह भूमिया देव सहरियाओं के ग्राम देवता है।

प्रत्येक सहराना के बीच में भूमिया देव का ओटला बनाकर पत्थर पर स्थापित किया जाता है। इन्हें ग्राम के संरक्षक देव माना जाता है। भादों में समुदाय के सभी लोग एक दिन निश्चित कर भूमिया देव की गोठ और चिंहारे की पूजा करते हैं। इस दौरान पूरे गांव से रुपए और अनाज इकट्‌टे करते हैं। सगे संबंधियों के लिए जातीय भोज का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भूमिया देव की पूजा से गांव में बीमारी और संकट नहीं आते हैं। वहीं सामाजिक मान्यता के अनुसार विभिन्न देवताओं की मनौती और पूजा के बहाने समुदाय के लोगों द्वारा भोज देने की परंपरा के चलते पोषण संबंधी जरूरतें भी पूरी हो जाती है वहीं, सामाजिक सद्भाव भी बना रहता है।

सायबा निवासी 45 वर्षीय नंदलाल सहरिया बताते हैं कि समुदाय का मूल पर्व और त्योहार कौन से हैं यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, लेकिन दशहरा, होली, दीपावली, रक्षाबंधन आदि त्योहार हिंदुओं के संपर्क में रहने के कारण हम लोग भी उसी तरह मनाते हैं। चैत्र में गुड़ीपड़वा, अन्नपूर्णा देवी की पूजा, देवउठनी ग्यारस, शीतला सप्तमी, जन्माष्टमी, नवरात्रि, श्राद्ध, नागपंचमी, आखातीज आदि पर्वों के उत्साह और परंपरानुसार मनाते हैं। इस दौरान इस दौरान मीठा भोजन घुघरी, खीर, पुड़ी, मालपुआ बनने की पंरपरा है। हरियाली अमावस्या पर सहरियाओं के खेत जोतने का त्योहार है। इसमें अच्छी फसल की कामना की जाती है। फसल आने पर चैत्र में पहले देवि देवताओं और पूर्वजों को नए अन्न का भोग लगाते हैं, फिर स्वयं खाते है। लेकिन वर्तमान में सहरिया की आर्थिेक स्थिति बेहतर नहीं होने से त्योहार मनाने की पंरपराओं में पहले की तुलना में कमी आ गई है।



रविवार, 17 जनवरी 2016

हर साल पांच करोड़ खर्च, फिर भी कुपोषण


विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड में बरसों से जंगली इलाकों में रहने वाले सहरिया जनजाति को आजादी के 62 साल बीतने के बाद भी न तो बुनियादी सुविधाएं मिली हैं और न ही इनमें फैले कुपोषण को दूर करने व पोषण आहार में बढो़तरी के जमीनीस्तर पर प्रयास हो रहे हैं। यहां शासन प्रति वर्ष पांच करोड़ रुपए कुपोषण को दूर करने पर खर्च कर रहा है। इन सबसे बावजूद वनांचलों में कुपोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। विकासखंड में महिला एवं बाल विकास अधिकारी और स्वास्थ्य विभाग का अमला कभी वनांचलों में बसे इन आदिवासी गांवों की ओर कभी रुख ही नहीं करता।


कभी-कभार एएनएम और स्वास्थ्य कार्यकर्ता यहां आते हैं और औपचारिकता पूरी करके लौट जाते हैं। यहां के ग्राम आमेरा, खोंगरा मालूद, नहारिया, खजूरी आदि गांवों में सहरिया जनजाति के बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं। आज भी दूरदराज के आदिवासी बाहुल्य गांवों में बच्चे कुपोषण और बड़े कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। उनको न तो सही ढंग से पोषण आहार मिल रहा है और न ही उपचार। स्वास्थ्य विभाग द्वारा पदस्थ किए गए कर्मचारी शहरों में रह रहे हैं। गांवों में महीने दो महीने में चक्कर लगाने जाते हैं। इससे सहरियाओं की हालत समय पर इलाज नहीं मिलने से लगातार बिगड़ती जा रही है।

इसका ताजा उदाहरण उदयपुर से मुरादपुर जाने वाले मार्ग पर बसे ग्राम आमेरा का है। यहां के निवासी लालजी सहरिया की सबसे छोटी बेटी एक साल की सुषमा इन दिनों कुपोषण की चपेट में है और उसकी स्थिति यह है कि अगर समय पर उसे इलाज नहीं मिला तो 15 दिन में उसकी मौत भी सकती है। लालजी सहरिया बताते है कि जब सुषमा पैदा हुई थी तब वह सामान्य वजन की थी। उसे कई दिनों से लगातार तेज दस्त लग रहे हैं। इसका स्थानीय स्तर पर इलाज भी कराया, लेकिन ठीक नहीं हुई। उसका पूरा शरीर सूख गया है। अब वह हडि्डयों का ढांचा रह गई है।

इसी गांव के हरिसिंह सहरिया, शिवचरण, भूरा, हरिनारायण व गुड्डा ने बताया कि उनकी बस्ती में दस्त, बायरल, खुजली फैली है। इससे बच्चे, महिलाएं व पुरुष परेशान है। उन्हें उपचार तक नहीं मिल पा रहा है। इसकी हमने कई बार स्वास्थ्य कार्यकर्ता को भी इस बारे में जानकारी दी, लेकिन कोई देखने तक नहीं आया। हम, लाचार और बेबस लोग अब करे भी तो क्या। हमारे पास इतने पैसे भी नहीं की इस बच्ची का इलाज करा सके। वहीं, ग्राम खोंगरा में दो वर्षीय नेहा कुपोषण जनित बीमारी का शिकार है। उसके बदन में फोड़े हो रहे हैं। यहां पोषण आहार की व्यवस्था भी सही नहीं है।


ग्राम नहारिया में 30 वर्षीय परसराम सहरिया का सबसे छोटा बेटा सात माह का गोपाल को भी कुपोषित है। उसका सामान्य से कम वजन होने के अलावा शरीर बहुत दुबला और कमजोर है। सहरिया आदिवासी बहुल्य इन गांवों में हालात बदतर होने के बावजूद गंजबासौदा विकासखंड में महिला एवं बाल विकास अधिकारी गंभीर नहीं हैं।

पोषण आहार की मात्रा को बढ़ाना चाहिए :

लालाजी बताते है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता द्वारा हर मंगलवार को पोषण आहार के रूप में दलिया का एक पैकेट दिया जाता है। जो परिवार के तीन-चार बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं होता। यह पैकेट तो एक-दो दिन में ही खत्म हो जाता है। इससे समुदाय में पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलने से बच्चे में कम वजन, कुपोषण और कमजोरी लगातार बढ़ रही है। वहीं, बीपीएल परिवारों को राशन दुकान से एक महीने में 15 किलो गेहूं, पांच किलो चावल मिलते हैं, जबकि छह लोगों के परिवार में एक महीने में करीब एक क्विंटल अनाज की जरूरत पड़ती है। ऐसे में 20 किलो अनाज पूरे परिवार के लिए अपर्याप्त होता है। इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ रहा है। उन्हें गरीबी के कारण दूध, घी भी मुहैया नहीं होता है और न ही अतिरिक्त पोषण आहार मिलता है। जब शरीर को उसकी जरूरत के मुताबिक पोषण भोजन व पोषण आहार नहीं मिलेगा तो वह कमजोर हो जाएगा। घर में जो भोजन सभी के लिए बनता है उसे ही खाना पड़ता है। गर्भवती महिलाओं में अतिरिक्त पोषण नहीं मिलने से खून की कमी, एनिमिया और कमजोरी के मामलों में इजाफा हो रहा है।

आजीविका बढ़ाने के लिए करते हैं पलायन

समुदाय के 45 वर्षीय शिवचरण सहरिया बताते है कि आमेरा में करीब 28 परिवारों में 225 लोग रहते हैं। यहां कुछ लोगों को तो पट्‌टे पर दो बीघा जमीन मिली है, लेकिन इसके असिंचित होने से इतना अनाज भी पैदा नहीं होता की परिवार का पेट भर सके। जमीन पठारी इलाके में होने से पथरीली और कम उपजाऊ है। यहां तुअर, सोयाबीन, कपास बोवनी करते है। फसल आने के बाद जब खर्च जोड़ा जाता है तो बचत तो कुछ नहीं होती उल्टा कर्ज बढ़ जाता है। इससे समुदाय के लोग मजदूरी और आसपास की पत्थर खदानों में काम करते हैं। जब यहां काम नहीं मिलता तब आजीविका की तलाश पलायन करना पड़ता है। इसके लिए समुदाय के लोग उदयपुर, मुरादपुर के अलावा राजस्थान और आसपास के जिलों में मजदूरी की तलाश में पलायन करते हैं। ऐसे में ये लोग करीब छह महीने तक अपने परिवार से दूर रहते हैं। कई बार शादी विवाह जैसे आयोजनों के लिए कर्ज भी लेना होता है। इसे चुकाने के लिए दूसरे जिलों में जाकर मजदूरी करना होता है।

जननी वाहन के लिए मांगते हैं 600 रुपए

इसी गांव के 60 वर्षीय हरिराम सहरिया बताते है कि आज भी समुदाय की गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी गांव में ही दायी करती है। उनका कहना है कि हमारे गांव में जननी सुरक्षा योजना के तहत वाहन की सुविधा भी नहीं मिलती। कार्यकर्ता वाहन उपलब्ध कराने के लिए 600 रुपए मांगते हैं। अस्पताल दूर होने और निजी वाहन सुविधा नहीं होना सबसे बड़ी परेशानी है। इससे तो अच्छा है कि हम गांव में ही डिलीवरी करा लें। हरिराम मानते है कि ऐसे समय में गर्भवती महिला को ज्यादा सुरक्षा और इलाज की जरूरत होती है, लेकिन मेहनत, मजदूरी करने के बाद भी इतना पैसा नहीं मिलता की पेट भर सके। ऐसे में इलाज के लिए पैसे कहा से जुटाए? डिलीवरी के दौरान ही कुछ समय पहले रतिराम सहरिया की पत्नी ममता की मौत हो चुकी है। ममता के पेट में 8 माह का गर्भ था। रतिराम का कहना है कि अगर ममता को समय पर इलाज मिल जाता तो शायद वह आज हमारे बीच होती।

245 आंगनवाडी और 24 सहायक केंद्र

गंजबासौदा सहित पूरे विकास खंड में 245 आंगनवाडी और 24 सहायक केंद्र हैं। आंगनवाडी में सहायिका और कार्यकर्ता पदस्थ रहते हैं। कार्यकर्ता को प्रति माह 5000 रुपए और सहायिकाओं को 2500 रुपए मानदेय दिया जाता है। सहायक केंद्र पर पदस्थ कार्यकर्ता को 3250 रुपए हर महीने मिलते हैं। इस प्रकार इन पर हर महीने 19 लाख 14हजार 300 रुपए शासन द्वारा खर्च किया जा रहा है। वहीं, तीन लाख रुपए परियोजना के अधिकारियों और कर्मचारियों पर हर महीने खर्च हो रहे हैं। इसके अलावा केंद्रों को दिए जाने वाले पोषण आहार पर अलग लाखों रुपए महीने खर्च हो रहा है। इस सब खर्चों को जोड़ा जाए तो एक साल में करीब पांच करोड़ रुपए कुपोषण को मिटाने पर खर्च हो रहे हैं। इसके बावजूद जमीनी स्तर पर कुपोषण के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।


2014 में 232 कुपोषित हुए भर्ती

शासकीय जन चिकित्सालय में स्थापित पोषण पुर्नवास केंद्र में वर्ष 2014 में 232 कुपोषित बच्चों को उपचार के लिए लाया गया। जबकि 2015 जनवरी से मार्च तक 34 पोषण पुर्नवास केंद्र में आए। इन आंकड़ों की बानगी यह बताने के लिए काफी है कि कुपोषण की क्या स्थिति है। यह उन इलाको की स्थिति है जहां कार्यकर्ताओं पर ग्रामीण और जनप्रतिनिधियों का दवाब बना रहता है, लेकिन कच्चे घरों और जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की हालत बेहद खराब है।

नोट : यह जानकारी अप्रैल 2015 में सहरिया आदिवासी समुदाय पर किए गए अध्ययन पर आधारित है।

शनिवार, 16 जनवरी 2016

रोजगार मिले तो कर सकते हैं जड़ी-बूटियों का व्यवसाय


सहरिया आदिवासी : औषधियों के उपयोग से तो परिचित हैं, लेकिन वैज्ञानिक विधि से अनजान


जंगलों के आसपास रहने वाली सहरिया जनजाति के लोग। औषधीय पौधों को पहचानने में माहिर। फूल-पत्तियों और पौधों की जड़ों से इलाज का ज्ञान भी। लेकिन अब इस विधा से दूर हो रहे हैं। विदिशा जिले के गंजबासौदा ब्लॉक में सहरियाओं के परिवार विस्थापित हो रहे हैं। वजह नई पीढ़ी में इस ज्ञान को निखारने का उत्साह नहीं। जमा की गई जड़ी-बूटियों के दाम भी सही नहीं मिलते। न ही सरकार ने उनके पारंपरिक गुण वैज्ञानिक विधि से विकसित की कोई योजना बनाई।

गंजबासौदा विकासखंड के खोंगरा मालूद निवासी बुजुर्ग घासीराम सहरिया जंगल में मौजूद कई जड़ी बूटियों के बारे में जानते हैं। उनका कहना है कि जंगल में कई प्रकार की जड़ी-बूटियां थीं, जिसका उपयोग पूर्वजों द्वारा दवा के रूप में किया जाता था। बरसात में समय अपो की पत्ती, बड़ी बिलौया, छोटी बिलौया के फूल और पत्ते, चाबिलौरो की बेल, कांदा, कुंवा का बकुला बेल, गिलोय की पत्ती जैसे कई प्रकार की औषधि का उपयोग किया जाता था। वहीं, सर्दी के समय चितावर की जड़, छोटी-बड़ी आंवली, सयरे का फूल, अकौवा का फूल, शीशोन की फली, रवैर की फली, कनेर का पत्ता, अतरझारा, तिलथुआ और शहद जैसी चीजों का संग्रह करते थे। अगर शासन औषधियों से दवाइयां बनाने का वैज्ञानिक विधि से प्रशिक्षण दे तो हमें रोजगार तो मिलेगा ही साथ ही ओने-पोने दाम पर औषधि बेचने से छुटकारा मिले जाएगा।


दाम मिले तो बढ़ाएं खोजबीन

नहारिया गांव के मुन्नालाल सहरिया बताते है कि जड़ी बूटियों को संग्रह करने के अलग-अलग मौसम होते हैं। बरसात के बाद जड़ी बूटियां और पत्तियां मिलना शुरू होती है। यह काम चार महीने चलता है। जड़ी-बूटियों के गीली होने पर यह कम भाव में बिकती थी। जबकि सुखा कर बेचने से थोड़ा फायदा हो जाता था। साहूकार इन गीली औषधियों को सुखा कर आयुर्वेदिक प्रयोगशालाओं में महंगे दाम पर बेचते थे। पहले की तरह जंगल में जड़ी-बूटियों के उपयोग के प्रति रूझान भी कम हुआ है। सरकार अगर औषधि अच्छे दाम पर खरीदे तो समुदाय के युवा इस काम के लिए तैयार हो सकते हैं।

न पलायन बढ़ता, न ही पोषण में कमी आती

जंगलों के खत्म होने और आज की पीढ़ी के औषधि संग्रह और उनके उपयोग में रुचि नहीं लेने के कारण वे सब भूलते जा रहे हैं। रम्मू सहरिया बताते है कि सरकार द्वारा वन औषधियों के संग्रह को लेकर समुदाय के लोगों के लिए स्थाई रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। अगर इनमें रोजगार की संभावना और औषधि निर्माण के वैज्ञानिक तरीके से क्षेत्र के युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाता तो आज न तो समुदाय के लोगों का विस्थापन बढ़ता और न ही पोषण संबंधी समस्याओं में इजाफा होता।

समुदाय के लोगों से चर्चा कर बनाएंगे योजनाएं

स्वसहायता समूह बनाकर राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत वन औषधियों को संग्रह कराने का कार्य कराया जा रहा है। इसके लिए वन विभाग और आयुष विभाग इस तरह के कार्य पहले से ही कर रहे हैं। इन्हीं विभागों के माध्यम से जो सहरिया आदिवासी जड़ी-बूटियों के व्यवसाय को रोजगार के रूप में अपनाना चाहते हैं उन्हें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण देकर औषधियों के व्यवसाय से जोड़ा जा सकता है। इस संबंध में जल्द ही समुदाय के लोगों से चर्चा कर एक योजना बनाई जाएंगी।
सीएम ठाकुर, एसडीएम, गंजबसौदा

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

तथाकथित विकास में हाशिए पर आदिवासी




कभी प्रकृति की स्वच्छंद हवा और जल, जंगल पर राज करने वाला आदिवासी आज हाशिए पर है। वह अब तक न तो अपनी परंपरागत जीवनशैली से मुक्त हो पाया है और न ही आधुनिक विकास से तालमेल स्थापित कर सका है। इसी का परिणाम है कि आज वह जीवन बजाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। आदिवासियों के लिए आजीविका और रोजगार तो कभी सरकार की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर भी कभी गंभीरता नहीं दिखाई गई। ग्रामीण विकास की तमाम योजनाओं में भी उसकी कोई हिस्सेदारी नहीं है। वह बदहाल और लाचार है क्योंकि उसके साथ हमेशा से ही उपेक्षित व्यवहार हुआ।

अनंतकाल से जंगल की संस्कृति में रचा बसा, वहीं के तौर तरीकों से जीवन जीने की कला और पोषण के तरीकों से लेकर जड़ी-बूटियों से उपचार ही उसकी प्राथमिकता रहा है। लेकिन तथाकथित आधुनिक विकास ने वनों का राष्ट्रीयकरण कर जंगल से बेदखल कर कर दिया। कोदो, कूटकी, सवां, रमतीला, बाजरा, मक्का, ज्वार जैसी मोटे अनाज से उसे हमेशा से ही पोषण मिला, कंद मूल उन्हें शारीरिक उर्जा प्रदान करते रहे और जड़ी बूटियां से उपचार और ताकत मिलती रही। आज स्थितियां इसके बिलकुल उलट हो गई है। परंपरागत खाद्य सुरक्षा की चीजें आदिवासियों की थाली से पूरी तरह गायब हैं। जंगलों के खत्म होने से कई कंद और औषधियां अब अपना अस्तित्व खो चुके हैं। सरकार ने उसे पट्‌टे के नाम पर छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थमा दिए हैं। जिससे वह इतनी उपज भी नहीं ले पाता कि अपना पेट भर सके।


गंजबासौदा विकासखंड के आमेरा निवासी भूरालाल सहरिया ने बताया कि सरकार ने हमें पट्‌टे पर भले ही जमीन दे दी हो, लेकिन हम उपज इसलिए नहीं ले पाते कि जमीन को नाले के किनारे पर दे दिया गया है। बारिश के दौरान खेतों में पानी भर जाता है और पूरी फसल नष्ट हो जाती है। सिंचाई की सुविधा नहीं होने से गेहूं और चने की फसल नहीं ले पाते। फसल बोते भी हैं तो लागत नहीं निकलती है। समुदाय के कई लोगों ने तो इस परेशानी को देखते हुए जमीन को ठेके पर देना शुरू कर दिया है। इससे नकद पैसा मिल जाता है, जिससे हम लोग घर-गृहस्थी का सामान खरीद लेते हैं। खेतों में मजदूरी से ही आजीविका चलती है।


खदानों के बंद होने से हुए बेरोजगार :

शिवलाल सहरिया ने बताया कि समुदाय के लोग तीन महीने से बेरोजगार हैं। यहां पत्थरों की खदानों में काम करके रोजाना करीब 150 रुपए कमा लेते थे, लेकिन पिछले दिनों झाबुआ जिले के पेटलावद में हुए विस्फोट के बाद क्षेत्र की सभी खदानें बंद हो गई है। खेतों में भी इतना काम नहीं मिलता कि परिवार का पेट भर सकें। अब आजीविका के लिए विस्थापन के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा है। गौरतलब है कि गंजबासौदा विकासखंड में उदयपुर क्षेत्र के सहरिया बहुल्य 25 गांवों में करीब सात हजार मजदूर पत्थरों की खदानों में काम करते थे, जो अब बेरोजगार हो गए हैं।


परंपरागत उपचार में अधिक विश्वास :

सहरिया वन औषधियों के अच्छे जानकार माने जाते हैं। वे आज भी सुदूर वनांचलों में अपने परंपरागत तरीकों से ही उपचार करते हैं। खोंगरा के 70 वर्षीय काशीराम सहरिया बताते हैं कि वे मशेर फली, लाफर फेंदा, अमरवेल, सदामस्ती, गुड़बेल, दुधई, नाय, मोरपंख, चेंच,किरवारे की केस, कनउउआ, छोटी नौरी, अचार गुठली, बेकल का पत्ता, पोमार की मुगदार आदि का उपयोग प्राथमिक उपचार के लिए करते हैं। लेकिन इलाज की विधि वैज्ञानिक नहीं होने और अंधविश्वास हावी होने के कारण कई बार लापरवाही की वजह से गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। समुदाय के बुजुर्ग आज भी अस्पताल के इलाज पर भरोसा न कर समुदाय के गुनिया पर ही विश्वास करते हैं, लेकिन युवा पीढ़ी ने परंपरागत उपचार के मिथक को तोड़कर अस्पतालों में इलाज और टीकाकरण में रूचि लेना शुरू कर दिया है।
बारिश में सबसे ज्यादा परेशानी :

ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पताल के 10 से 15 किलोमीटर के दायरे में आने वाले लोगों में आंगनबाड़ी और एएनएम की वजह से जागरूकता आने लगी है। महिलाओं के प्रसव भी अस्पतालों में होने लगे हैं, जन्म के तत्काल बाद बच्चे को मां का दूध भी मिलने लगा है। इससे मातृ शिशु मृत्यु दर में कभी भी आई है, लेकिन सुदूर वनांचलों में आज भी हालात जस के तस हैं, वहां दायियों (बसौड़ जाति की महिलाओं) द्वारा ही प्रसव कराया जाता है, जो कई बार असुरक्षित होता है। पोषण आहार और टीकाकरण की सुविधा भी कई बार उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाती। इस समस्या के लिए आवागमन की सुविधा नहीं होना, अस्पताल की दूरी सबसे बड़ी दिक्कत हैं। बारिश के दिनों में तो यह दिक्कत गंभीर रूप ले लेती है।

नहीं मिलता पर्याप्त पोषण :

कहा जाता है कि सहरिया आदिवासियों में बड़े व्यक्ति की मौत टीबी और बच्चों की मौत कुपोषण की वजह से होती है। इसका कारण खाद्य असुरक्षा है। हालांकि बच्चों और गर्भवती महिलाओं में इसका होना सबसे ज्यादा चिंता का विषय है। गर्भावस्था के प्रारंभिक दिनों में महिला को उसकी जरूरत का भोजन और पोषण नहीं मिले तो नवजात शिशु कुपोषित हो सकता है। इसी तरह शिशु के जन्म के तत्काल बाद से छह माह तक सिर्फ मां का दूध और फिर छह माह की उम्र तक पर्याप्त पूरक आहार नहीं मिले तो उसके कुपोषित होने की आशंका बढ़ जाती है। डब्ल्यूएचओ ग्लोबल हेल्थ ऑब्जर्वेटरी के मुताबिक बच्चों में मौत का कारण 35 प्रतिशत कुपोषण है। इसके अलावा निमोनिया 18 प्रतिशत, नवजात मृत्यु 35 प्रतिशत, डायरिया 11 प्रतिशत, खसरा 1 प्रतिशत, एड्स 2 प्रतिशत, मलेरिया 7 प्रतिशत, चोट 5 प्रतिशत और अन्य परिस्थितियां 16 प्रतिशत हैं।

युवा अवस्था में ही बुढ़ापा हावी :

खाद्य असुरक्षा का प्रभाव बड़े-बुजुर्गों में भी देखने को मिलता है। पत्थर की खदानों में काम करने से युवा अवस्था में ही बुढ़ापा हावी होने लगता है। यहां पूरे क्षेत्र में करीब सात हजार मजदूर खदानों में काम करते हैं। लमनिया के 40 वर्षीय भगवान सिंह सहरिया ने बताया कि पिछले 25 साल से खदानों में काम कर रहा हूं। सांस लेने पर पत्थरों की धूल नाक और मुहं में चली जाती है। पत्थरों को तोड़ने के लिए घन चलाना पड़ता है। इससे छाती में ताकत पड़ती है। समय पर न तो खाना खाते हैं और न ही अतिरिक्त पोषण के रूप में कुछ मिलता और लगातार फेफड़ों में धूल के जमा होने से टीबी सहित कई संक्रामक बीमारियों का शिकार होना पड़ रह है। विकासखंड के सहरिया बहुल्य 25 गांवों में अगस्त 2013 से जनवरी 2015 के दौरान टीबी के मरीजों में 165पुरुष और 39 महिलाओं में टीबी की पुष्टि हुई। जिसमें 104 पुरुष और 20 महिलाओं को उपचार मिला। वहीं, 25पुरुष और 09 महिलाओं की मौत हो गई।