शुक्रवार, 22 जनवरी 2016
पोषण की सुरक्षा से जुड़़ी थी सामाजिक परंपरा
सहरिया आदिवासियों में उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित रीति रिवाज और परंपराएं बहुत सशक्त थी। इनके पीछे कुछ धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं थी। जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समुदाय के लोगों के लिए सीधे तौर पर पोषण की सुरक्षा से जुड़ी थी। इसमें ईश्वर, स्थानीय देवि देवताओं और टोने टोटके के प्रति अटूट आस्था थी। अन्य समुदायों की तरह पूजा और मनौती पूरी होने पर बलि देने के बाद सामूहिक भोज की परंपरा भी थी।
ऐसा माना जाता है सहरिया अपनी परेशानी, लाभ-हानि और बीमारी के समय स्थानीय देवताओं से मनौती मांगते थे। इसके पूरी होने पर सहराना और गांव के आसपास पूर्वजों द्वारा स्थापित देवताओं के ओटले पर जाकर पूजन कर मुर्गे और बकरों की बलि देते थे। जिसे बाद में सभी लोग इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। इस तरह समुदाय के लोगों को मांस के रूप में एक दिन का पोषण मिल जाता था। सहरिया में यह सिलसिला पर्वों और त्योहारों पर विशेष रूप से चलता था। समुदाय में आज भी देवताओं के प्रति आस्था में कोई बदलाव तो नहीं आया है, लेकिन बलि देने की परंपरा में परिवर्तन जरूर दिखाई देने लगा है। यह कहना है कि विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड के तहत आने वाले गांव आमेरा निवासी 60 वर्षीय हरिराम सहरिया का।
वे बताते हैं कि स्थानीय देवी देवता समुदाय के लोगों को बुरी आत्माओं और आपदाओं से बचाते हैं। इसके अलावा बीमारियों से भी रक्षा करते हैं। उनका मानना है कि देवताओं में इतनी शक्ति होती है कि वे बांझ स्त्री को भी संतान देने का सामर्थ रखते हैँ। हमारे पूर्वजों को जब भी जंगल में कोई परेशानी होती थी तो इन्हीं देवताओं की शरण में जाकर उनकी पूजा कर मनौती मांगते थे। जिसके पूरी होने पर बलि देते थे।
इस तरह सहरिया में पूर्वजों द्वारा स्थापित आस्था का यह सिलसिला आज तक जारी है, लेकिन इसमें पहले की तुलना में अब कमी आई है। पहले बलि के लिए मुर्गे और बकरे आसानी से और कम कीमत में उपलब्ध हो जाते थे। इसलिए सहरिया भी बलि की मनौती को आसानी से पूरा कर पाता था। अब समय के साथ परंपरा में भी बदलाव आ गया है। बलि पर रोक लगने और आर्थिेक स्थिति ठीक नहीं होने से अब सांकेतिक बलि भी दी जाने लगी है। हरिराम बताते है कि इस सामाजिक परंपरा के पीछे पोषण की सुरक्षा भी जुड़ी हुई थी।
पूर्वजों के मिले परंपरागत ज्ञान के आधार पर ग्राम खोंगरा के 35 वर्षीय प्रताप सहरिया बताते हैं कि समुदाय में करीब15 देवि देवताओं को प्रमुख रूप से पूजा जाता है। इनमें ठाकुर देव, भैंरो देव, परीत देव, नाहर देव, दरेठ देव, कारस देव, भूमिया देव, नरसिंह देव, हीरामन देव आदि शामिल है। इसके अलावा कैला माता, कंकाली माता, बीजासन देवि, तेजाजी महाराज के साथ जिंद का पूजन करने की परंपरा है। प्रताप बताते हैं कि देव की पूजा करना जहां समुदाय की धार्मिेक और सामाजिक मान्यता है। वहीं, सहराना के सभी लोगों द्वारा देव के ओटले पर जाकर पूजा के बाद सामूहिक भोज करना हमें पोषण की सुरक्षा प्रदान करता है। खास बात यह है कि इस दौरान सभी सहरिया अपनी क्षमता के मुताबिक राशि इकट्ठा कर इस कार्यक्रम में शामिल होते है। इससे समुदाय के लोगों में सामाजिक सद्भावना भी बनी रहती है।
प्रताप समुदाय के स्थानीय देव के संबंध में बताते है कि ठाकुर देव बच्चों और बूढ़ों की रक्षा करने वाला देवता है। बच्चों को निमोनिया और बूढ़ों को पसली चलने पर ठाकुर देव की मनौती की जाती है। रोगी के ठीक होने पर शराब और बकरे की बलि देने की परंपरा पुर्वजों के समय से चली आ रही है। वहीं, भैंरो देव को पूजा देने से बांझ स्त्रियों को पु्त्र की प्राप्ति होती है। मनौती पूरी होने पर बकरे और मुर्गे की बलि दी जाती है। जब तक यह पूजा नहीं होती घर में झूला नहीं बांधा जाता। भैंरो देव की स्थापना पेड़ के नीचे या खुले चबूरते पर एक सिंदूर लगे लंबे या गोल पत्थर के रूप में होती है। इसी तरह भूमिया देव सहरियाओं के ग्राम देवता है।
प्रत्येक सहराना के बीच में भूमिया देव का ओटला बनाकर पत्थर पर स्थापित किया जाता है। इन्हें ग्राम के संरक्षक देव माना जाता है। भादों में समुदाय के सभी लोग एक दिन निश्चित कर भूमिया देव की गोठ और चिंहारे की पूजा करते हैं। इस दौरान पूरे गांव से रुपए और अनाज इकट्टे करते हैं। सगे संबंधियों के लिए जातीय भोज का आयोजन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भूमिया देव की पूजा से गांव में बीमारी और संकट नहीं आते हैं। वहीं सामाजिक मान्यता के अनुसार विभिन्न देवताओं की मनौती और पूजा के बहाने समुदाय के लोगों द्वारा भोज देने की परंपरा के चलते पोषण संबंधी जरूरतें भी पूरी हो जाती है वहीं, सामाजिक सद्भाव भी बना रहता है।
सायबा निवासी 45 वर्षीय नंदलाल सहरिया बताते हैं कि समुदाय का मूल पर्व और त्योहार कौन से हैं यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, लेकिन दशहरा, होली, दीपावली, रक्षाबंधन आदि त्योहार हिंदुओं के संपर्क में रहने के कारण हम लोग भी उसी तरह मनाते हैं। चैत्र में गुड़ीपड़वा, अन्नपूर्णा देवी की पूजा, देवउठनी ग्यारस, शीतला सप्तमी, जन्माष्टमी, नवरात्रि, श्राद्ध, नागपंचमी, आखातीज आदि पर्वों के उत्साह और परंपरानुसार मनाते हैं। इस दौरान इस दौरान मीठा भोजन घुघरी, खीर, पुड़ी, मालपुआ बनने की पंरपरा है। हरियाली अमावस्या पर सहरियाओं के खेत जोतने का त्योहार है। इसमें अच्छी फसल की कामना की जाती है। फसल आने पर चैत्र में पहले देवि देवताओं और पूर्वजों को नए अन्न का भोग लगाते हैं, फिर स्वयं खाते है। लेकिन वर्तमान में सहरिया की आर्थिेक स्थिति बेहतर नहीं होने से त्योहार मनाने की पंरपराओं में पहले की तुलना में कमी आ गई है।
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