रविवार, 17 जनवरी 2016
हर साल पांच करोड़ खर्च, फिर भी कुपोषण
विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड में बरसों से जंगली इलाकों में रहने वाले सहरिया जनजाति को आजादी के 62 साल बीतने के बाद भी न तो बुनियादी सुविधाएं मिली हैं और न ही इनमें फैले कुपोषण को दूर करने व पोषण आहार में बढो़तरी के जमीनीस्तर पर प्रयास हो रहे हैं। यहां शासन प्रति वर्ष पांच करोड़ रुपए कुपोषण को दूर करने पर खर्च कर रहा है। इन सबसे बावजूद वनांचलों में कुपोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। विकासखंड में महिला एवं बाल विकास अधिकारी और स्वास्थ्य विभाग का अमला कभी वनांचलों में बसे इन आदिवासी गांवों की ओर कभी रुख ही नहीं करता।
कभी-कभार एएनएम और स्वास्थ्य कार्यकर्ता यहां आते हैं और औपचारिकता पूरी करके लौट जाते हैं। यहां के ग्राम आमेरा, खोंगरा मालूद, नहारिया, खजूरी आदि गांवों में सहरिया जनजाति के बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं। आज भी दूरदराज के आदिवासी बाहुल्य गांवों में बच्चे कुपोषण और बड़े कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। उनको न तो सही ढंग से पोषण आहार मिल रहा है और न ही उपचार। स्वास्थ्य विभाग द्वारा पदस्थ किए गए कर्मचारी शहरों में रह रहे हैं। गांवों में महीने दो महीने में चक्कर लगाने जाते हैं। इससे सहरियाओं की हालत समय पर इलाज नहीं मिलने से लगातार बिगड़ती जा रही है।
इसका ताजा उदाहरण उदयपुर से मुरादपुर जाने वाले मार्ग पर बसे ग्राम आमेरा का है। यहां के निवासी लालजी सहरिया की सबसे छोटी बेटी एक साल की सुषमा इन दिनों कुपोषण की चपेट में है और उसकी स्थिति यह है कि अगर समय पर उसे इलाज नहीं मिला तो 15 दिन में उसकी मौत भी सकती है। लालजी सहरिया बताते है कि जब सुषमा पैदा हुई थी तब वह सामान्य वजन की थी। उसे कई दिनों से लगातार तेज दस्त लग रहे हैं। इसका स्थानीय स्तर पर इलाज भी कराया, लेकिन ठीक नहीं हुई। उसका पूरा शरीर सूख गया है। अब वह हडि्डयों का ढांचा रह गई है।
इसी गांव के हरिसिंह सहरिया, शिवचरण, भूरा, हरिनारायण व गुड्डा ने बताया कि उनकी बस्ती में दस्त, बायरल, खुजली फैली है। इससे बच्चे, महिलाएं व पुरुष परेशान है। उन्हें उपचार तक नहीं मिल पा रहा है। इसकी हमने कई बार स्वास्थ्य कार्यकर्ता को भी इस बारे में जानकारी दी, लेकिन कोई देखने तक नहीं आया। हम, लाचार और बेबस लोग अब करे भी तो क्या। हमारे पास इतने पैसे भी नहीं की इस बच्ची का इलाज करा सके। वहीं, ग्राम खोंगरा में दो वर्षीय नेहा कुपोषण जनित बीमारी का शिकार है। उसके बदन में फोड़े हो रहे हैं। यहां पोषण आहार की व्यवस्था भी सही नहीं है।
ग्राम नहारिया में 30 वर्षीय परसराम सहरिया का सबसे छोटा बेटा सात माह का गोपाल को भी कुपोषित है। उसका सामान्य से कम वजन होने के अलावा शरीर बहुत दुबला और कमजोर है। सहरिया आदिवासी बहुल्य इन गांवों में हालात बदतर होने के बावजूद गंजबासौदा विकासखंड में महिला एवं बाल विकास अधिकारी गंभीर नहीं हैं।
पोषण आहार की मात्रा को बढ़ाना चाहिए :
लालाजी बताते है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता द्वारा हर मंगलवार को पोषण आहार के रूप में दलिया का एक पैकेट दिया जाता है। जो परिवार के तीन-चार बच्चों के लिए पर्याप्त नहीं होता। यह पैकेट तो एक-दो दिन में ही खत्म हो जाता है। इससे समुदाय में पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलने से बच्चे में कम वजन, कुपोषण और कमजोरी लगातार बढ़ रही है। वहीं, बीपीएल परिवारों को राशन दुकान से एक महीने में 15 किलो गेहूं, पांच किलो चावल मिलते हैं, जबकि छह लोगों के परिवार में एक महीने में करीब एक क्विंटल अनाज की जरूरत पड़ती है। ऐसे में 20 किलो अनाज पूरे परिवार के लिए अपर्याप्त होता है। इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं पर भी पड़ रहा है। उन्हें गरीबी के कारण दूध, घी भी मुहैया नहीं होता है और न ही अतिरिक्त पोषण आहार मिलता है। जब शरीर को उसकी जरूरत के मुताबिक पोषण भोजन व पोषण आहार नहीं मिलेगा तो वह कमजोर हो जाएगा। घर में जो भोजन सभी के लिए बनता है उसे ही खाना पड़ता है। गर्भवती महिलाओं में अतिरिक्त पोषण नहीं मिलने से खून की कमी, एनिमिया और कमजोरी के मामलों में इजाफा हो रहा है।
आजीविका बढ़ाने के लिए करते हैं पलायन
समुदाय के 45 वर्षीय शिवचरण सहरिया बताते है कि आमेरा में करीब 28 परिवारों में 225 लोग रहते हैं। यहां कुछ लोगों को तो पट्टे पर दो बीघा जमीन मिली है, लेकिन इसके असिंचित होने से इतना अनाज भी पैदा नहीं होता की परिवार का पेट भर सके। जमीन पठारी इलाके में होने से पथरीली और कम उपजाऊ है। यहां तुअर, सोयाबीन, कपास बोवनी करते है। फसल आने के बाद जब खर्च जोड़ा जाता है तो बचत तो कुछ नहीं होती उल्टा कर्ज बढ़ जाता है। इससे समुदाय के लोग मजदूरी और आसपास की पत्थर खदानों में काम करते हैं। जब यहां काम नहीं मिलता तब आजीविका की तलाश पलायन करना पड़ता है। इसके लिए समुदाय के लोग उदयपुर, मुरादपुर के अलावा राजस्थान और आसपास के जिलों में मजदूरी की तलाश में पलायन करते हैं। ऐसे में ये लोग करीब छह महीने तक अपने परिवार से दूर रहते हैं। कई बार शादी विवाह जैसे आयोजनों के लिए कर्ज भी लेना होता है। इसे चुकाने के लिए दूसरे जिलों में जाकर मजदूरी करना होता है।
जननी वाहन के लिए मांगते हैं 600 रुपए
इसी गांव के 60 वर्षीय हरिराम सहरिया बताते है कि आज भी समुदाय की गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी गांव में ही दायी करती है। उनका कहना है कि हमारे गांव में जननी सुरक्षा योजना के तहत वाहन की सुविधा भी नहीं मिलती। कार्यकर्ता वाहन उपलब्ध कराने के लिए 600 रुपए मांगते हैं। अस्पताल दूर होने और निजी वाहन सुविधा नहीं होना सबसे बड़ी परेशानी है। इससे तो अच्छा है कि हम गांव में ही डिलीवरी करा लें। हरिराम मानते है कि ऐसे समय में गर्भवती महिला को ज्यादा सुरक्षा और इलाज की जरूरत होती है, लेकिन मेहनत, मजदूरी करने के बाद भी इतना पैसा नहीं मिलता की पेट भर सके। ऐसे में इलाज के लिए पैसे कहा से जुटाए? डिलीवरी के दौरान ही कुछ समय पहले रतिराम सहरिया की पत्नी ममता की मौत हो चुकी है। ममता के पेट में 8 माह का गर्भ था। रतिराम का कहना है कि अगर ममता को समय पर इलाज मिल जाता तो शायद वह आज हमारे बीच होती।
245 आंगनवाडी और 24 सहायक केंद्र
गंजबासौदा सहित पूरे विकास खंड में 245 आंगनवाडी और 24 सहायक केंद्र हैं। आंगनवाडी में सहायिका और कार्यकर्ता पदस्थ रहते हैं। कार्यकर्ता को प्रति माह 5000 रुपए और सहायिकाओं को 2500 रुपए मानदेय दिया जाता है। सहायक केंद्र पर पदस्थ कार्यकर्ता को 3250 रुपए हर महीने मिलते हैं। इस प्रकार इन पर हर महीने 19 लाख 14हजार 300 रुपए शासन द्वारा खर्च किया जा रहा है। वहीं, तीन लाख रुपए परियोजना के अधिकारियों और कर्मचारियों पर हर महीने खर्च हो रहे हैं। इसके अलावा केंद्रों को दिए जाने वाले पोषण आहार पर अलग लाखों रुपए महीने खर्च हो रहा है। इस सब खर्चों को जोड़ा जाए तो एक साल में करीब पांच करोड़ रुपए कुपोषण को मिटाने पर खर्च हो रहे हैं। इसके बावजूद जमीनी स्तर पर कुपोषण के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं।
2014 में 232 कुपोषित हुए भर्ती
शासकीय जन चिकित्सालय में स्थापित पोषण पुर्नवास केंद्र में वर्ष 2014 में 232 कुपोषित बच्चों को उपचार के लिए लाया गया। जबकि 2015 जनवरी से मार्च तक 34 पोषण पुर्नवास केंद्र में आए। इन आंकड़ों की बानगी यह बताने के लिए काफी है कि कुपोषण की क्या स्थिति है। यह उन इलाको की स्थिति है जहां कार्यकर्ताओं पर ग्रामीण और जनप्रतिनिधियों का दवाब बना रहता है, लेकिन कच्चे घरों और जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की हालत बेहद खराब है।
नोट : यह जानकारी अप्रैल 2015 में सहरिया आदिवासी समुदाय पर किए गए अध्ययन पर आधारित है।
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