सोमवार, 25 जनवरी 2016

बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही आंगनबाड़ी

दोनों को दूरी दो किमी होने से बारोद टपरा के आदिवासी बच्चों को नहीं भेजते

विदिशा जिले में गंजबासौदा विकासखंड के बारोद आदिवासी टपरा का कोई भी बच्चा न तो स्कूल जाता है और न ही आंगनबाड़ी। क्योंकि यहां से आंगनबाड़ी केंद्र और स्कूल की दूरी दो-दो किलोमीटर दूर है। बारोद आंगनबाड़ी में तो 30 आदिवासी बच्चों के नाम भी दर्ज हैं। जब भी कोई काम होता है तो इनके माता-पिता महीने में एक-दो बार आंगनबाड़ी आकर पोषण आहार लेकर चले जाते हैं।

आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता लीला शर्मा ने बताया कि अगर बच्चों के लिए उनके टपरे के आसपास ही केंद्र खुल जाए तो इन बच्चों को आंगनबाड़ी का सही मायने में लाभ मिल सकता है। इस समस्या को लेकर महिला बाल विकास विभाग गंजबासौदा के अफसरों को भी बताया जा चुका है। इसके बावजूद अब तक कोई पहल नहीं की गई है। रहवासी राधेश्याम शर्मा ने बताया गांव की सीमा में आवासीय जगह न होने से आदिवासियों को राजस्व भूमि पर बसाया गया था। उसी समय से सहरिया परिवार वहां रह रहे हैं।

टपरा के लखपत सिंह सहरिया ने बताया कि बच्चों को जंगल से होकर दो किमी दूर बारोद जाना पड़ता है। हम रोज तो बच्चों को आंगनबाड़ी नहीं ले जा सकते। आवागमन की कोई सुविधा नहीं है। पूरा रास्ता जंगल से होकर गुजरता है। आसपास पत्थरों की बड़ी-बड़ी खदानें हैं। जंगल में कई जानवर भी रहते है। जिससे कभी भी हादसा हो सकता है। हमें मजदूरी के लिए खेतों पर भी जाना पड़ता है। अगर यह केंद्र हमारे टपरे के आसपास ही खुल जाए तो बच्चों को इसका फायदा मिलेगा।

टपरे के रूपसिंह सहरिया ने बताया कि यहां से प्राथमिक स्कूल भी दो किमी दूर है। इसलिए बड़े बच्चों भी जाना पसंद नहीं करते। कभी-कभी तो हमें ही बच्चों को लेकर जाना और आना पड़ता है। कई बार सरपंच और जनप्रतिनिधियों के सामने भी हमने इस समस्या को रखा। लेकिन हम आदिवासियों की सुनता कौन है।

बुनियादी सुविधाएं भी नहीं
60 वर्षीय पानबाई ने बताया कि दो साल पहले यहां बिजली के खंभे तो लगा दिए हैं, लेकिन तार अभी तक नहीं डले। पूरी सड़क उबड़-खाबड़ है। यहां वाहन आता तो दूर पैदल चलना भी मुश्किल होता है। हैंडपंप एक भी नहीं है, कुएं का पानी पीते है। कुआं भी आसपास से कच्चा है। इसलिए गंदगी भी कुएं में मिलती है।

18 किमी दूर है अस्पताल
वीर सिंह का कहना है कि हमें इलाज के लिए 18 किमी दूर त्योंदा जाना पड़ता है। डिलीवरी के दौरान महिलाओं को कच्चे रास्ते से अस्पताल ले जाना बहुत मुश्किल होता है। बारिश में तो समस्या और बढ़ जाती है। इस दौरान डिलीवरी गांव में ही अप्रशिक्षित दायियों के माध्यम से करानी पड़ती है। टपरे पर आदिवासियों के लिए शौचालय तक नहीं बनाए गए हैं।

मौत भी हो चुकी है कुपोषण से
कुछ समय पहले पास के नूरपूर टपरा में कुपोषण और समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण गंगा पिता मिठ्‌ठी की मौत भी हो चुकी है। इसके बाद भी प्रशासन ने आदिवासियों की समस्याओं को लेकर गंभीरता नहीं बरत रहा है। इस मामले में गंजबासौदा के बाल विकास अधिकारी ने बताया कि बारोद गांव का हिस्सा है टपरे लेकिन नए आंनवाड़ी केंद्र खोलने के प्रस्ताव भेजे गए हैं। जैसे ही नए केंद्रों को अनुमति मिलेगी। वहां सहायक केद्र खोला जाएगा।

03 नवंबर 2015 को प्रकाशित

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