शनिवार, 23 जनवरी 2016

घटते जंगल और सिमटते ज्ञान से कम हुआ आदिवासी जनजाति में जड़ी-बूटियों का उपयोग

आदिवासी जनजातियों का सदियों से जंगल से गहरा रिश्ता रहा है। जंगल की हरी भरी गोद में रहकर उन्होंने पौधे और तमाम तरह की जड़ी बूटियों का व्याकरण सीखा और गढ़ा। जिसे वे आज भी स्थानीय स्तर पर औषधि के रूप में समुदाय के लोगों के इलाज करते हैं। आदिवासी जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल से पहले इन्हें पूंजते हैं, ऐसी मान्यता है कि इससे जड़ी-बूटियों की असरकारक क्षमता दोगुनी हो जाती है। वहीं, इनकी जानकारी सार्वजनिक करने पर औषधि गुणों में कमी आ जाती है। आदिवासियों द्वारा एकत्र इन जड़ी-बूटियों और इनके बताए गए उपयोगों को आधुनिक विज्ञान भी तथ्यात्मक मानता है। इसी का परिणाम है कि आज जंगल की यह औषधि आदिवासियों के अलावा आम लोगों द्वारा भी उपचार में प्रयोग की जा रही है।

विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड में सुदूर जंगलों में रहने वाले बुजुर्ग सहरिया आदिवासी वन औषधियों के अच्छे जानकार हैं। उन्हें बरसों पुरानी जंगल आधारित परपंरा पूर्वजों से बिरासत में मिली है। जिसे वे आज तक आत्मसात किए हुए है। सहरियाओं की जड़ी बूटियों और उनकी संस्कृति से संबंधित किसी भी परपंरा का लिखित साहित्य मौजूद नहीं होने से यह आज भी बरसों से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तातंरित होता आ रहा है, लेकिन वर्तमान में स्थिति यह है कि समुदाय की युवा पीढ़ी उपचार की इस परंपरागत पद्धति को लेकर गंभीर नहीं है।

विकासखंड के ग्राम खोंगरा मालूद के जंगल में उम्र की 75 बसंत गुजार चुके घासीराम सहरिया वनोषधियों के जानकार है। वे बताते है कि इससे पहले आशाखेड़ी, लेटनी (तहसील कुरवाई ) के वन क्षेत्र में हम रहते थे। माता-पिता के अलावा परिवार में हम तीन भाई थे। पिता यही जंगल में खेती और मजदूरी करते थे। करीब 60 साल पहले यहां भीषण बाढ़ आई, जिसमें समुदाय के लोगों का सारा सामान और मवेशियां बाढ़ में बह गए। इस हादसे में घासीराम के पिता और एक भाई भी बाढ़ के काल में समा गए। उस समय वहां आदिवासियों के करीब 10 घर थे। सभी की गृहस्थी का सामान भी बाढ़ में बह गया था। तब घासीराम के उम्र करीब 10-12 साल थी। तब समुदाय के अन्य लोगों के साथ वे अपने बडे भाई के साथ मजदूरी और आजीविका की तलाश में भटकते-भटकते खोंगरा मालूद में आकर बस गए।

घासीराम बताते है कि 60-65 साल पहले हम सहरियाओं की पूरी संस्कृति जंगल पर आधारित थी। जंगल में ही रहकर मजदूरी करते थे। तब दिनभर काम करने के बाद चार पाई अनाज या 10 रुपए मिलते थे। इस दौरान जंगल में मिलने वाली औषधियों को जानने की जिज्ञासा होने पर घासीराम ने समुदाय के बुजुर्ग लोगों से उनके साथ रहकर उपचार का तरीका भी सीख लिया। अब वे औषधियों से समुदाय के लोगों को इलाज करते है। वे जिस इलाके में रहते है उसे करिया पहाड़ या गढ़ी पहाड़ के नाम से जाना जाता है।

आदिवासियों के जंगल से जुड़ी औषधियों सार्वजनिक नहीं करने के पीछे उनका तर्क है कि अगर औषधियों की जानकारी सभी लोगों को पता चल जाएगी तो इसका हर्श भी वहीं होगा जो आज जंगलों को हो रहा है। जिस तरह तेजी से जंगल कट रहे है ऐसे ही एक दिन यहां की बहुमूल्य औषधि भी खत्म् हो जाएगी। करीब चार-पांच दशक पहले आदिवासी 35-40 प्रतिशत इलाज वन औषधियों के माध्यम से करते थे। पूर्वजों का यह ज्ञान आने वाले पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं करने से इनका प्रतिशत वर्तमान में घटकर10-15 प्रतिशत रह गया है। वहीं, जंगलों के लगातार नष्ट होने और आदिवासियों को वन क्षेत्रों से खदेड़ने के कारण इस्तमाल की जाने वाली औषधियों के उपयोग में भी कमी आई है। अगर इसे समय रहते संरक्षित नहीं किया गया तो सहरियाओं की परंपरागत औषधि पूरी तरह से खत्म हो जाएगी।

उनकी एक मान्यता यह भी है कि दवा की जानकारी सार्वजनिक करने से इसका असर कम हो जाता है। इसलिए पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी को इसका ज्ञान नहीं देते। इसके पीछे इनके नियम और पर्यावरण के प्रति अटूट आस्था है। वहीं, युवओं में भी इस परंपरागत उपचार व्यवस्था में रूचि नहीं है। इसके पीछे उनका तर्क है कि पहले अस्पताल नहीं थे तो इस तरह की औषधियों की आवश्यकता थी। आज उपचार के लिए कई विकल्प खुले हैं। उनका कहना है कि अगर जड़ी बूटियों और टोटके के भरोस बैठे रहे और समय पर उपचार नहीं कराया तो बीमारी भी गंभीर रूप ले सकती है। वही, कुछ लोगों को मानना है कि वर्षों बाद भी वन औषधि से उपचार एक सेवा है। इसके रोजगारपरक नहीं होने से भी समुदाय के युवा इस पद्धति से उपचार करने में रूचि नहीं ले रहे हैं।

घासीराम सहरिया बताते है कि जंगल से औषधि लाने की एक बरसों पुरानी परंपरा रही है। जब भी हमें जंगल से जड़ीबूटी लाना होता है उससे एक दिन पहले या कभी तत्काल भी जड़ीबूटी के रूप में पेड़ में विराजमान देवता का पूजन, हवन और उस जड़ी के चमत्कारिक असर के लिए प्रार्थना करते है। इससे जड़ीबूटी का असरकारक क्षमता में दोगुनी वृद्धी हो जाती है। आदिवासी औषधि के लिए पेड़ों की जड़, तना, फूल, पत्तियां, मिट्‌टी और छाल का उपयोग करते है। इन पांच चीजों के मिलान करने से जड़ी प्रभावकारी हो जाती है।

विकास संवाद मीडिया फैलाशिप के अध्ययन के दौरान और निवेदन पर खोंगरा मालूद के बुजुर्ग घासीराम सहरिया ने न केवल कुछ औषधियों की जानकारी साझा की बल्कि उन्होंने जंगल में हमारे साथ भ्रमण कर दवाईयों के पेड़ों से भी परिचय कराया। यहां पाई जाने वाली औषधि और उनके उपयोग की विधि कुछ इस तरह है।

सेमल : सेमल का पौधा अपने आप में कई औषधि गुण को खजाना है। इसके नए पौधे की जड़ को मूसला (कंद) करते है, जो बहुत पुष्टिकारक, नपुंसकता को दूर करने में उपयोग होता है। सेमल से निकलने वाला गोंद मोचरस कहलाता है। यह अतिसार को दूर कर ताकत बढ़ाता है। इसके बीज मदकारी होते है। वहीं, काँटों में फोड़े, फुंसी, घाव, आदि दूर करते हैं। यह जंगल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। समुदाय के लोग गर्मी के दिनों में इसे खोदकर घर ले आते हैं। जिसे वे कूटकर और सुखाकर इसका पावडर बनाकर इसका उपयोग करते हैं। इसे गर्भवती महिलाओं सहित समुदाय के सभी लोग ताकत बढ़ाने के लिए खाते हैं।

महुआ : इसे आदिवासियों की किशमिश कहा जाता है। महुआ वातनाशक और पोष्टिक है। यदि जोड़ों पर इसका लेपन किया जाय तो सूजन कम होती है और दर्द खत्म होता है। इससे पेट की बीमारियों से मुक्ति मिलती है। महुआ के ताजे फूलों का रस निकालकर उससे बरिया, ठोकवा, लप्सी जैसे अनेक व्यंजन बनाए जाते हैं।

करोंदा : करोंदा के पेड़ का आदिवासियों द्वारा सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है। घासीराम बताते है कि करौंदे का रोजाना सेवन करने से महिलाओं को खून की कमी (एनीमिया) से छुटकारा मिलता है। वहीं, करोंदे का रस हाई ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करता है। इसके फल का चूर्ण खाने से पेट दर्द में दूर होता है, भूख बढ़ती है, दस्त की शिकायत दूर होती है, ज्यादा प्यास भी नहीं लगती। करोंदे के पत्ते दस्त में तेजी से फायदा करते हैं। सूखी खांसी में करौंदा की पत्तियां से निकलने वाला रस ज्यादा गुणकारी होता है। दांत संबंधी बीमारियों में भी फायदा करता है। सर्प के काटने पर करौंदे की जड़ को पानी में उबालकर इसका काढ़ा पिलाने से रोगी को लाभ मिलता है।

शमी : शरीर की गर्मी दूर करने के लिए शमी की पत्तियों का इस्तेमाल होता है और जिन्हें अत्यधिक पेशाब जाने की समस्या हो, उन्हें भी शमी की पत्तियों का रस सेवन कराते है।

सिंघाड़े : सिंगाड़ा का फल नाक से नकसीर यानी खून बहने पर फायदा करता है। प्रसव होने के बाद महिलाओं में कमजोरी आ जाती है। इसे दूर करने के लिए महिलाओं को सिंघाड़े का हलवा खाना चाहिए। वे महिलाएं जिनका गर्भाशय कमजोर हो वे सिंघाड़े का हल्वे का खाए तो फायदा मिलता है। इसके आलावा स्वेत प्रदर से पीड़ित महिलाएं सिंघाड़े के आटे का हलवा शाम को रोजाना खाने से लाभ मिलता है। यदि सूखे या खूनी बवासीर हो तो सिंघाड़े का सेवन से यह बीमारी ठीक हो जाती है। सिंगाड़े के आटे का लड्डू बनाकर नियमित सेवन करने से कई बीमारियां दूर होती है।

गुड़हल : आदिवासी इसके फूलों को तनाव दूर करने और नींद के लिए उपयोग में लाते हैं। गुड़हल के ताजे लाल फूलों को पीस कर बालों में लगाने से गुड़हल कंडीशनर की तरह कार्य करता है।

दूब घास: जंगल में सहरिया आदिवासी शारीरिक स्फूर्ति के लिए दूब घास का उपयोग करते है। नाक से खून आने पर ताजी व हरी दूब का रस दो-दो बूंद नथुनों में टपकाने से खून बंद हो जाता है। लगभग 15 ग्राम दूब की जड़ को एक कप दही में पीसकर लेने से पेशाब करते समय होने वाले दर्द से निजात मिलती है। दूब घास की पत्तियों को मिश्री डालकर और छानकर रोजाना पीने से पथरी की बीमारी दूर होती है।

कनेर: साधारण सा दिखने वाला कनेर का पेड़ बुखार से लेकर सर्प दंश और बिच्छु के काटने तक में इसका उपयोग होता है। कनेर की पत्ती को पीस कर दूध बालों पर लगाने से गंजापन ठीक हो जाता है।

जंगल प्याज: श्वांस रोग, बच्चों में कफ की शिकायत, भोजन का पाचन होकर दस्त साफ होता है। इसके लिए जंगली प्याज का रस निकालकर रोजाना 5-10 बूंद रोजाना सेवन करना होता है।

चिरोटा :चिरोटा का पौधा मैदानी इलाकों सहित जंगलों में भरपूर होता है। यह साधारण से दिखने वाले पौधे में कई औषधि गुण विद्धमान है। घासीराम बताते है कि चिरोटा की पत्तियों और बीजों को के उपयोग से पेट की मरोड़, दाद, खाज, खुजली और दर्द दूर होता है। इसकी पत्तियों को बारिक पीसकर घाव पर लगाने से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। वही, चिरोटा की पत्तियों और बीज का काढा बनाकर पिलाने से पीलिया में फायदा होता है। इसके आदिवासी अंचलों और ग्रामीण इलाकों में पत्तियों का उपयोग बारिश के दिनों में भाजी के रूप में किया जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इसके गुणों को एंटी बैक्टिरियल मानता है।

बेल: बेल के पत्ते दस्त और हैजा नियंत्रण में उत्तम हैं। इसके पके फलों के गूदे का रस या जूस तैयार करके पिलाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

तुलसी : जंगल और रहवासी क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध होने वाली तुलसी में कई विशेष गुण है। इसका सहरिया बरसों से इस्तमाल करते आ रहे हैं। तुलसी का अर्क ब्लड कॉलेस्ट्रोल, एसिडिटी, पेचिस, कोलाइटिस, स्नायु दर्द, सर्दी-जुकाम, सिरदर्द, उल्टी-दस्त, कफ, चेहरे की क्रांति में निखार, मुंहासे, सफेद दाग, कुष्ठ रोग, मोटापा कम, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग, मलेरिया, खांसी, दाद, खुजली, गठिया, दमा, मरोड़, आंख का दर्द, पथरी, नकसीर, फेफड़ों की सूजन, अल्सर, पायरिया, शुगर, मूत्र संबंधी रोग आदि रोगों में फायदेमंद है।

अशोक की छाल: महिलाओं के लिए अशोक का पेड़ वरदान है। गर्भाशय की बेहतरी, मासिक धर्म संबंधित रोगों आदि के निवारण के लिए यह उत्तम है। लगभग 50 ग्राम अशोक की छाल को दो कप पानी में खौलाया जाए जब तक कि यह आधा शेष ना बचे। इस काढे को ठंडा होने पर प्रतिदिन एक गिलास पीने से तेजी से फायदा होता है।

मक्का: ऊर्जा, ताकत और पीलिया रोग में लाभकारी है। आदिवासियों के अनुसार मक्के के दानों में वे सभी महत्वपूर्ण तत्व होते हैं जिनकी वजह से मांस-पेशियां और हड्डियां मजबूत बनती हैं। आदिवासी खून की कमी होने पर रोगी को मक्के की रोटियां खाने की सलाह देते हैं।

गिलोय : गिलोय, गोखरु, आंवला, मिश्री समान भाग मिलाकर 1-1 चम्मच 2 बार दूध से लेने पर शारीरिक ताकत बढ़ती है। इसे गर्भवती महिलाओं की कमजोरी दूर करने के लिए भी दिया जाता है। वहीं, गिलोय व सौंठ के चूर्ण खिलाने से हिचकी बंद हो जाती है। घृत के साथ सेवन करने से वात रोग दूर होता है। गुड के साथ सेवन करने से कब्ज नहीं होती। इसके अलावा गिलोय, हरड, नागर मोथा इन सबको चूर्ण बनाकर शहद के साथ सेवन करने पर चर्बी कम होकर मोटापा दूर होता है।

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