सोमवार, 20 जनवरी 2014

खत्म हो गए आजीविका के पारंपरिक स्रोत



जल, जमीन और जंगल पर आश्रित रहे बारेला समुदाय के आदिवासियों को आज भी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। उनके सामने शासन की उपेक्षापूर्ण नीति, गरीबी और भेदभाव भी एक चुनौती है। खाद्य सुरक्षा की पारंपरिक व्यवस्था सुदृढ़ होने के बावजूद ये आज भी तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं। अगर हम समुदाय आधारित पांच दशक पुरानी खाद्य सुरक्षा पर नजर डाले तो पहले भी प्राकृतिक आपदाओं, बाढ़ और अकाल पडऩे पर इनकी खाद्य सुरक्षा भी प्रभावित होती थी।

ऐसे में परंपरा आधारित खाद्य व्यवस्था में अनाज को सहेजकर रखने पर यह समुदाय के लोगों की जीवन सुरक्षा का आधार होती थी। इसमें समुदाय के लोग अनाज का भंडारण करके रखते थे। इसके लिए वे बांस की टोकनी या फिर मिट्टी को कोठी बनाते थे। जिसमें लंबे समय तक अनाज को सुरक्षित रखा जा सकता था। इसके अलावा वे बारिश के दौरान अनाज को खराब होने से बचाने के लिए चूना और नीम के पत्ते का भी उपयोग करते थे। वहीं, वे आसपास के बड़े किसानों और साहूकारों से अनाज उधार या कर्ज लेकर अपनी जरूरतों को पूरा करते थे। क्षेत्र में समुदाय के अधिकांश लोगों की आज भी यही स्थिति है।

देवास जिले की खातेगांव तहसील के आदिवासी क्षेत्र पांचापुरा के ५० वर्षीय पारसिंह बताते हैं कि पहले हमारे पूर्वज जंगलों में ही रहते थे। वे पोषण को बढ़ावा देने वाली जड़ी बूटियों की जानकारी रखते थे। क्योंकि उस दौरान सुदूर अंचलों में अस्पताल और डॉक्टर जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। हां, इतना जरूर था कि आसपास के शहरों में वैद्य या जानकार हुआ करते थे, जो रोगी की नाड़ी का परीक्षण कर दवाइयां देते थे, वे दवाई के रूप में या तो अपने पास से जड़ी-बूटियां देते थे या फिर जंगलों में मिलने वाली किसी औषधि का नाम बताकर उसके सेवन करने की सलाह देते थे। इनको लेने के बाद रोगी ठीक हो जाते थे। पारसिंह बताते है कि पिताजी को बहुत सी दवाइयों की जानकारी थी।

वे मानते थे कि जड़ी-बूटियों को प्रचार करने से उसकी शक्ति कम हो जाती है और बीमार व्यक्ति पर उसका असर नहीं होता है। इसलिए उन्होंने कभी हम लोगों से वनों औषधि की बात सांझा नहीं की। बावजूद इसके अब भी क्षेत्र में कई बुजुर्ग इनके जानकार हैं। वे स्थानीय जड़ी बूटियों के माध्यम से उपचार करते हैं, लेकिन जब से नई-नई बीमारियां होने लगी है, तब से समुदाय के लोगों में भी जागरूकता आई है। वे पहले की तुलना में गांव के आसपास स्थित कस्बों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खुल गए हैं। इससे समुदाय के लोग अब परंपरागत औषधियों के साथ अस्पतालों में डॉक्टरों से परामर्श लेकर इलाज करा रहे हैं।

समुदाय के ६० वर्षीय रामप्रसाद बारेला बताते है कि पहले वनों में हमारे पूर्वजों को पूरी आजादी थी, लेकिन जब से वनों का राष्ट्रीयकरण और वन नीति लागू हुई है तब से पारंपरिक आजीविका के स्रोत तो धीरे-धीरे खत्म हो गए, लेकिन उनकी जगह मुर्गीपालन, कुछ वनोपज का विक्रय, शिकार, मछली मारने मोटे अनाज का उत्पादन कर पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते हैं। वन उपज और उससे जुड़ी कई चीजों अब सुलभ नहीं है। क्षेत्र में कोदो व कुटकी जैसी फसलों का उत्पादन बंद हो गया है वहीं, मक्का व ज्वार की पैदावार कम हुई है।

अब सोयाबीन, गेहंू, धान, कपास जैसी फसलों का बाजार की मांग के मुताबिक उत्पादन करना पड़ रहा है। इन्हें बेचने के बाद पैसे भी उतने नहीं मिलते की सालभर का गुजारा हो सके। यहां की जमीन पथरीली और उबड़-खबड़ होने से उर्वरक क्षमता भी घटी है। साथ ही फसल का उत्पादन बढ़ाने के लिए महंगे बीज और रसायनिक खाद का इस्तेमाल करना पड़ता है। अगर औसत रूप से देखा जाए तो फसलों का उत्पादन करना भी घाटे का सौदा साबित हो रहा है।

समुदाय के बुजुर्ग सीताराम बारेला बताते है कि समुदाय के अधिकांश लोगों के पास सीमित जमीन, गरीबी और बेरोजगारी है। वे क्षेत्र के बड़े किसानों और साहूकारों के यहां मजदूरी करते हैं। धन के अभाव में गरीब लोग पर्याप्त पौष्टिक चीजें जैसे दूध, फल, घी आदि भी नहीं खा पाते। वहीं, गांव व देहात में रहने वाले अधिकांश आदिवासियों को पर्याप्त पोषण और संतुलित भोजन की जानकारी नहीं है। इसके चलते वे अपने बच्चों के भोजन में आवश्यक वस्तुओं का समावेश नहीं करते। इसका सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है।

यही स्थिति समुदाय की गर्भवती महिलाओं को लेकर भी है। अक्सर समुदाय की महिलाएं पूरे परिवार को भोजन कराने के बाद खाना खाती है, जो उनके लिए अपर्याप्त होता है। उचित पोषण के अभाव में गर्भवती माताएं स्वयं तो रोगग्रस्त होती ही हैं साथ ही इसका असर होने वाले बच्चे पर भी पड़ता है, लेकिन अब समुदाय के लोगों में स्वास्थ्य को लेकर पहले की तुलना में काफी जागरूकता आ रही है।

इधर शासन की योजनाओं का लाभ भी समुदाय के लोगों को नहीं मिल रहा है। मनरेगा में काम की गारंटी होने के बावजूद लोगों को मजदूरी के लिए भटकना पड़ रहा है। वहीं योजनाओं के संचालन में पारदर्शिता नहीं होने से गरीब तबका आज भी बुनियादी सुविधाओं से कोसो दूर है। यह कहना है समुदाय के रामजीवन बारेला का। उन्होंने कहा कि गांव में रोजगार के अवसर सीमित हैं। ऐसे में हमें मजदूरी और खेती के अलावा कोई काम नहीं मिलता। इससे परिवार के लोगों को पोषण अहार और अन्य जरूरी चीजें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होती। बावजूद इसके समुदाय के लोग खाद्य सुरक्षा को लेकर हमेशा गंभीर रहते हैं। इसी का परिणाम है कि क्षेत्र में कुपोषण का स्तर बहुत कम है।

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