महिला एवं बाल विकास विभाग के माध्यम से संचालित आंगनबाड़ी केंद्रों के खुलने के बाद भी बच्चों में कुपोषण के मामलों में कमी नहीं आई है, लेकिन विभाग के अफसरों का कुपोषण जरूर दूर हुआ है। इसी का परिणाम है कि भारत 2015 तक कुपोषितों की संख्या को आधा करने के लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा है। विभाग द्वारा कई योजनाओं का संचालन सिर्फ कागजों पर ही किया जा रहा है। इसके चलते जमीनीस्तर पर न तो बच्चों को कोई लाभ नहीं मिल रहा है और न ही गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त पोषण आहार मुहैया कराया जा रहा है। जबकि मध्यप्रदेश सरकार भी कुपोषण के कलंक को प्रदेश से मिटाने की बात कई बार कह चुकी है, लेकिन विभाग के अफसरों की इच्छाशक्ति में कमी और कठोर प्रावधान नहीं होने से वे न तो क्षेत्र का दौरा करते हैं और न ही पोषण आहार वितरण को लेकर गंभीर है।
हमारे प्रधानमंत्री भी विकास की विभिन्न योजनाओं में जनाआंदोलन की बात करते हैं। चाहे मामला स्मार्ट सिटी का हो या फिर स्वच्छता अभियान का। क्या हम देश में बच्चों के कुपोषण के खिलाफ जनांआदोलन खड़ा नहीं कर सकते ? क्या कारण है कि भारत में 5 साल से कम उम्र के करीब 10 लाख बच्चे हर साल कुपोषण के कारण मर जाते हैं? इतना ही नहीं कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है, जहां कुपोषण के मामले सबसे अधिक पाए जाते हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री ने पहल कर 'बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ' अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर मुद्दे को उठाया है। वह निश्चित ही स्वागत योग्य कदम है। लेकिन जब बेटियों की मौत कुपोषण से नहीं होगी तब ही तो हम उन्हें पढ़ा पाएंगे और बचा सकेंगे।
एसीएफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है। रिपोर्ट में लिखा गया है, "भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है."। इसके बावजूद न तो देश के जनप्रतिनिधियों में कोई गंभीरता नजर आ रही है और न ही महिला एवं बाल विकास के अफसर सरकारी ढरर्रा से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे हैं।
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की हाल ही जारी की गई एक सालाना रिपोर्ट बताया गया है कि भारत में 1946 लाख लोग कुपोषण के शिकार है। यह भारत की कुल आबादी का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत अपनी औसत आर्थिक वृद्धि के अनुरूप फूड वितरण प्रणाली को बदलने में नाकाम रहा। इससे साबित होता है कि देश में समग्र आर्थिक विकास होने के बावजूद भूखे, गरीब लोगों को फायदा नहीं मिला। भारत 1990-92 से अब तक देश में कुपोषितों की संख्या में 36 फीसदी की कमी लाने में कामयाब रहा। जबकि चीन ने इतने ही समय में कुपोषितों की तादाद 60.9 फीसदी तक कम कर ली है।
यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत 2015 तक कुपोषितों की संख्या को आधा करने के लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा। एफएओ ने पाया कि लक्ष्य को हासिल करने की भारत की गति बहुत धीमी है। कुपोषण का सबसे ज्यादा बोझ दक्षिणी एशिया में है। कुपोषितों की संख्या में कमी लाने में बांग्लादेश और नेपाल ने भारत से काफी बेहतर प्रदर्शन किया। 1990-92 से अब तक नेपाल में कुपोषितों की संख्या में 65.6 फीसदी और बांग्लादेश में 49.9 फीसदी की कमी आई है। कुपोषितों की संख्या को आधा करने के लक्ष्य को चीन ने पूरा कर लिया है। भारत की स्थिति देखते हुए लग रहा है कि वह 2020 तक भी अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएगा।
मध्यप्रदेश सरकार भी 80 हजार से अधिक आंगनबाड़ी केंद्र और 12 हजार से अधिक मिनी आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से कुपोषण के कलंक को मिटाने की बात कर रही है। कुपोषण के मामले में 8फीसदी की कमी लाने का दावा भी किया जा रहा है, लेकिन जमीनीस्तर पर जरूरतमदों को इन आंगनबाड़ियों का कोई ज्यादा फायदा नहीं मिल रहा है।मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में आज भी 71.4 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। प्रदेश का औसत 60.3 प्रतिशत है। इसका अर्थ यह है कि शिशु कन्याओं को सही पोषण, उपचार, टीकाकरण न होने से वे कम वजन, पोषक तत्वों की कमी, धीमी गति से वृद्धि जैसी समस्याएँ भोगती हैं।
शासन के नियमानुसार आंगनबाड़ियों के खुलने का समय तो निर्धारित कर दिया है, लेकिन वे खुलते कार्यकर्ता और सहायिकाओं की मर्जी पर ही है। इसका असर यहा हो रहा है कि न तो बच्चों को सही तरीके से मध्याह्न भोजन दिया जा रहा है और न ही पोषण आहार। मीनू के मुताबिक तो आज तक बच्चों को पोषण आहार मिला ही नहीं हैं। यह बात विदिशा जिले के गंजबासौदा विकासखंड में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने चर्चा के दौरान खुद स्वीकार की।
तहसील के सहरिया आदिवासियों में वर्ष 1993 से 2005 तक 113 से अधिक बच्चों की मौत कुपोषण से हो चुकी है। इस मामले के प्रदेश स्तर पर उठने के बाद 2002 में विकासखंड के उदयपुर क्षेत्र के सहरिया बहुल्य 25 गांवों को कुपोषण के लिए चिन्हित कर दिए गए। इन गांवों में आज भी वही स्थिति है जो पहले थी। हालात में कोई बदलाव नहीं आया है। इतना जरूर है कि पहले की तुलना में कुपोषण से मौत होने का आंकड़ा कम हो गया है। इन इलाकों में महिला एवं बाल विकास अधिकारी और स्वास्थ्य विभाग का अमला कभी वनांचलों में बसे इन आदिवासी गांवों की ओर कभी रुख ही नहीं करता। कभी-कभार एएनएम और स्वास्थ्य कार्यकर्ता यहां आते हैं और औपचारिकता पूरी करके लौट जाते हैं।
यहां के ग्राम आमेरा, खोंगरा मालूद, नहारिया, खजूरी, सहायबा आदि गांवों में सहरिया जनजाति के बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं। दूरदराज गांवों में बच्चे कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। उनको न तो सही ढंग से पोषण आहार मिल रहा है और न ही उपचार। स्वास्थ्य विभाग द्वारा पदस्थ किए गए कर्मचारी शहरों में रह रहे हैं। गांवों में महीने दो महीने में चक्कर लगाने जाते हैं। इससे सहरियाओं की हालत समय पर इलाज नहीं मिलने से लगातार बिगड़ती जा रही है। यहां फरवरी से जुलाई 2015 के बीच कुल 1308 बालक और 1342 बालिकाओं का वजन सामान्य था। वहीं 254 बालक और 231बालिकाओं का वजन कम था। इसके अलावा गंभीर कुपोषित बच्चों में 41 बालक और 37 बालिक दर्ज किए गए।
अगर सरकार कुपोषण को लेकर सही मायने मे गंभीर है तो हमें इस मुद्दें को जनांदोलन का रूप देना होगा। सरकार से सभी विभागों को इसमें सम्मिलित कर ऐसी योजना बनानी होगी, जिसका लाभ जमीनीस्तर पर लोगों को मिले। इसके लिए समुदाय के लोगों की समस्याओं और रोजगार की स्थानीय स्तर पर उपलब्धता भी सुनिश्चित करनी होगी। नियमित आंगनबाड़ी केंद्र खुले, बच्चों की उपस्थिति शतप्रतिशत रहे, पर्याप्त पोषण आहार मिले, गर्भवतियों की नियमित जांच और उपचार पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। तभी हम प्रदेश से कुपोषण के कलंक को धो सकते हैं।
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