बम धमाकों से सिहर उठा मेरा शहर
न जाने किन दरिंदों ने कहर ढाया
कभी-कभी ही मिलती रही खुशियां
दिवाली ईद तीज और त्योहारों पर
किसकी लगी नजऱ, सिहर उठा मेरा शहर .....
गंूजते थे वो धमाके, जो कभी शरहदों पर
अब तो गली महोल्लों में डर सताने लगा है
हर लावारिश वस्तु भूली बिसरी की नजर आती है
अब यही लावारिश वस्तु बारूद बनकर
ढा रही है कहर, मेरे शहर पर ....
कर देंगे माफ़ दिल को
देकर झूठा दिलाशा
कोई तुझे साफ़ करने का
लेकर बैठा है इरादा
क्यों करता है तू ऐसी हरकतें
क्यों बेवजह ढाता है कहर
बहुत पछताएगा, सुधर जा
मत ढा कहर मेरे शहर पर
अब सिहर उठा है मेरा शहर...
अब तलक मेरे शहर कि शान्ति को
तू समझ बैठा है नादानी
हम सदा करते रहे माफ़ तुझको
इतने नहीं हम अहिंसा के पुजारी
न कर धमाके तू मंदिरों और मस्ज्जिदों पर
अब सिहर उठा मेरा शहर...
शुक्र कर मेरे शहर के नेता अभी सोये हुए हैं
तांडव के साक्षी त्रिशूल "और "नाग" ठहरे हुए हैं
जिस दिन चल दिए तेरे शहर को
खाक होंगे लोग, मरेंगे बेमौत को
फिर इन धमाकों से सिहर उठेगा तेरा शहर .....
1 टिप्पणी:
aapki is kavita par mujhe sudarshan fakir ki wo ghazal yaad aa gayi....mulaija farmayiega..."Hum soch rahe hain muddat se, ab umr gujarein bhi to kahan, sehra me khushi ke phool nahin, shehron mein gamon ke saaye hain.
bahut aacha likha hai...likhte rahiye.
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