सोमवार, 14 अगस्त 2017

गाेरखपुर घटना पर एक मां का दर्द....

गोरखपुर के अस्पताल में 30 बच्चों की मौत
गलती किसकी जिम्मेदार कौन सब है मौन
मांओं की गोद सूनी निहारती हैं आसपास
मां कहकर पुकारे कर रही बेटे का इंतजार

रो-रो कर बुरा हाल है हर तरफ गूंजती करुण पुकार है
पिता भी भर रहा है सिसकिया सीने पे रखा पहाड़ है
सहानुभूति की थपकिया भी जख्मों को कूरेद रही है
बेटे को खोने का दर्द क्या है मां ही महसूस कर रही है

अब तो घर की दीवारों ने भी मां से मुहं मोड़ लिया है
वो बात नहीं करती पता जो उन्हें भी चल गया है
मां की अंगुली और घर की दीवार को भी अहसास है
बेटे को बिना अपना घर भी अब बेगाना हो गया है

जिम्मेदार क्या समझेंगे दर्द जिन्होंने कुछ खोया ही नहीं
लापरवाही दूसरों पर थोप बच निकलेगे जैसे कुछ किया ही नहीं
स्वतंत्रता दिवस पर तथाकथित विकास के दावे करते थकेंगे नहीं
अस्पताल में हुई बच्चों की मौत का जिक्र तक भी करेंगे नहीं

कहने को तो हम देश की आजादी के 70 साल मना रहे हैं
सिर्फ पूंजीपति ले रहे इसका फायदा गरीब तो पिस रहे हैं
लोकतंत्र के नाम पर आज हर तरफ खुलेआम लूटपाट है
ईमानदार हो रहा परेशान और बेईमान तो मालामाल है

गोरखपुर के अस्पताल से सरकार कभी सबक ले पाएगी
ऐसे घटना न हो इसका कानून संसद में पास कराएंगी
प्रधानमंत्री जी देश आवाम की जान बचाने से चलता है
लंबे-चौड़े भाषणों से किसी का पेट नहीं भरता है
विदेशी दौरों को कम कर जरा गांवों में दौरे किजिए
यहां भी अपने रहते हैं जरा दिल से दिल को जोड़िए

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

आदिवासी बच्चों ने घर में सीखी बारेला बोली और स्कूल में हिंदी, अब सीखना चाहते हैं अंग्रेजी

हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया के प्राथमिक स्कूल की कहानी

जब किसी स्कूल में पढ़ने वाले आदिवासी विद्यार्थियों की जाति आधारित बोली अलग-अलग हो तो शिक्षक की मन: स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है। प्राथमिक से माध्यमिक स्कूल तक की आठ कक्षाओं के सभी बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल में एक ही शिक्षक हो तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। ऐसा ही स्थिति खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल में प्राथमिक विद्यालय डाबिया, जामन्या खुर्द, कालीबाड़ी, गोलखेड़ा, कालाकुंआ सहित आसपास के क्षेत्रों की है। यहां आदिवासी समुदाय के अंतर्गत आने वाली जातियों की बोलियां अलग-अलग होने से स्कूल में बच्चोंं को प्रवेश के दौरान हिंदी भाषा सीखने में कठिनाई आती है। स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं होना भी एक परेशानी है। इधर, शिक्षक के साथ भी दिक्कत यह है कि वे समुदाय की भाषा नहीं समझते। इसी का परिणाम है कि ग्राम डाबिया में बारेला समुदाय का एक भी बालक या बालिका कक्षा आठवीं तक पास नहीं कर पाया। अनियमित स्कूल आने और बचपन से ही पिता के साथ खेतों में मजदूरी करने से ये बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्रशासन कितने ही दावे करें, लेकिन जमीनी बिलकुल अलग है।

ग्राम डाबिया में आदिवासी समुदाय के बारेला, प्रधान और कोरकू तीन जातियों के लोग रहते हैं। इनकी स्थानीय बोली भी अलग-अलग है। यहां करीब 70 मकानों में महिला और पुरुष की आबादी 384-384 बराबर है। इन परिवारों के 6 वर्ष तक के 63 बालक और 64 बालिका हैं, जो स्कूल के रिकाॅर्ड के मुताबिक हाजरी रजिस्टर में दर्ज हैं। डाबिया का प्राथमिक से लेकर माध्यमिक विद्यालय एक शिक्षक के भरोसे है। इन्हें गैर शैक्षणिक कार्य का दायित्व भी इन्हें निभाना पड़ता है।

यहां 1987 से पदस्थ शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया ने बताया कि आदिवासी समुदाय के बच्चों की स्थानीय स्तर पर बोली अलग-अलग है। वे अपने घर-परिवार और समुदाय के लोगों से इसी भाषा में बात करते हुए पले-बढ़े हुए हैं। जैसे बारेला समुदाय के लोग बारेला बोली बोलते हैं। इसी तरह प्रधान और कोरकू की भी अपनी स्थानीय बोली है। जब इन समुदायों के बच्चे प्राथमिक स्कूल में प्रवेश लेते हैं तो उन्हें पढ़ाई करने के लिए एक नई भाषा हिंदी मिलती है।

सुनने, बोलने और पढ़ने की दक्षताओं का कराते हैं विकास
शिक्षक रमेश कुमार बकोरिया बताते हैं कि स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चों को सबसे पहले सुनना, बोलना और पढ़ना जैसी दक्षताओं का विकास काराया जाता है। चूंकि स्कूल में बच्चों को हमें हिंदी भाषा में पढ़ाना होता है। वहीं, समुदाय के छोटे बच्चे शुरुआत में हिंदी भाषा से अनजान होते हैं। इसलिए हमें बच्चों में दक्षता और कौशल विकसित करने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है। शुरू में बच्चों को कुछ भी समझ नहीं आता। जब उनसे बात करते हैं तो वे स्थानीय बोली में अपनी बात रखते हैं। तब शिक्षक को कुछ समझ में नहीं आता। ऐसे में बड़ी कक्षाओं के बच्चों की मदद लेनी पड़ती है। उनसे बच्चों द्वारा बोली गई बात को समझना पड़ता है। स्कूल में दिक्कत भाषा को लेकर तब आती है। जब एक ही कक्षा में तीन अलग-अलग बोली के बच्चे हों।

आदिवासी बोली के समझने के लिए स्थानीय शिक्षक जरूरी
बकोरिया बताते है कि ऐसी स्थिति में समुदाय के ही किसी व्यक्ति को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए। इससे दो फायदे होंगे। एक तो बच्चों को उनकी बोली और हिंदी भाषा में अध्यापन कराने के लिए दुभाषिया शिक्षक मिल जाएगा। जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होगी। दूसरा आदिवासी समुदाय के लोगों स्थानीय स्तर पर रोजगार और प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने बताया कि इसी मंशा को लेकर दो साल पहले समुदाय के ही एक व्यक्ति को अतिथि शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी है। जिसके बेहतर परिणाम भी सामने आने लगे हैं।

बच्चों में पहले डर, फिर झिझक, बाद में मिलने लगता है माहौल
अतिथि शिक्षक संजय उईके ने बताया कि वे प्राथमिक कक्षा के बच्चों पढ़ा रहे हैं। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा परेशानी पहली कक्षा में आती है। जब बच्चा स्कूल में प्रवेश लेता है तो उसमेें डर होता है। कुछ समय बाद यह धीरे-धीरे झिझक में बदल जाता है। इसके बाद बच्चे को माहौल मिलने लगता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।

परीक्षा के दौरान शुरू होता है आजीविका के लिए पलायन
जब बच्चों की परीक्षाओं का समय करीब आता है तो आदिवासी परिवारों का रोजगार के लिए पलायन करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। क्योंकि यह समुदाय की आजीविका से जुड़ा मामला है। अगले चार महीने बाद बारिश शुरू हो जाती है। इससे पहले उन्हें रोजमर्रा की जरूरतों को भी पूरा करना होता है। इस दौरान बच्चे भी अपने माता-पिता के साथ जाते हैं। वे वहां या तो अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करते हैं या फिर खेती के काम में हाथ बंटाते हैं। इसका सीधा असर बच्चों की शिक्षा पर पड़ता है और वे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं।

घर में बोलते हैं बारेला बोली, मैं अंग्रेजी भी सीखना चाहती हूं
डाबिया के प्राथमिक स्कूल में अपनी बहन सीमा और भाई करण के साथ कक्षा चौथीं में पढ़ने वाली संगीता पिता राधु बारेला ने बताया कि पहले हिंदी समझ में नहीं आती थी। फिर स्कूल के ही अन्य बच्चों से हिंदी में बातचीत की। स्कूल में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों को समझा। अब में स्कूल में हिंदी और घर पर बारेला बोली बोलती हूं। संगीता कहती है कि मैं अंग्रेजी पढ़ना चाहती हूं, लेकिन अंग्रेजी पढ़ाने वाला कोई शिक्षक स्कूल में नहीं हैं।

अंचल के अन्य स्कूलों की भी यही कहानी
इसी तरह जामन्य खुर्द के प्राथमिक विद्यालय में बारेला समुदाय के 13 बालक और 9 बालिका दर्ज हैं। स्कूल के निरीक्षण के दौरान एक बालिका ही स्कूल में मिली। शिक्षिका शांतिबाई ने बताया कि बच्चे होली का त्योहार होने से छुट्टी पर है। उन्होंने भी डाबिया की तरह भाषा संबंधी दिक्कत बताई। चूंकि शिक्षिका के आदिवासी समुदाय से होने के कारण वे बच्चों की स्थानीय बोली को आसानी से समझ लेती हैं। जामन्य खुर्द स्कूल से बारेला समुदाय की एक बालिका सीमा ही 10 कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर सकी है। उसकी आगे और पढ़ाई करने की इच्छा थी, लेकिन माता-पिता ने उसकी शादी कर दी।


मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

आदिवासियों को नहीं मिल रहा योजनाओं का लाभ

आदिवासी समुदाय की खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में वैसे तो शासन की गई योजनाएं संचालित हैं, लेकिन इनका जमीनीस्तर पर सही क्रियान्वयन नहीं होने से कई परिवारों को लाभ नहीं मिल रहा है। साथ ही संबंधित विभागों के जिन अधिकारियों को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है वे भी अपने दायित्वों को लेकर गंभीर नहीं है। इनमें प्राथमिक स्कूल, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, मध्याह्न भोजन, बीपीएल, एपीएल के अलावा ग्राम पंचायतों में बुुनियादी सुविधाओं को लेकर बनी योजनाएं शामिल हैं, जो आदिवासी परिवारों के लिए छलावा साबित हो रही है।

क्षेत्र में आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या कम होने से गर्भवती महिलाओं को इनके माध्यम से मिलने वाले पोषण अहार के रूप में दलिया, सत्तू, खिचड़ी और दवाइयां भी समय पर नहीं मिलती। वहीं, जिन केंद्रों मिलती है वहां भी मात्रा पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए उन्हें गांव के करीब तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। यह कहना है कि देवास जिले की खातेगांव तहसील के रतनपुर कांवड़ में रहने वाले 60 वर्षीय गिरधर बारेला का। उन्होंने बताया कि गांव चंदपुरा बीट वन परिक्षेत्र के अंतर्गत आता है। यहां करीब 65-70 मकान हैं, जिनमें 25 परिवार रहते हैं।

क्षेत्र में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केरोसिन और राशन का वितरण तो होता है। जब इसको लेकर समुदाय के लोगों से चर्चा की गई तो 35 वर्षीय छतरसिंह बारेला ने बताया कि यहां राशन की दुकान से राशन तो मिलता है, लेकिन समय से राशन दुकान नहीं खुलने से परेशानी का सामना करना पड़ता है। वहीं, राशन कम तौलना, दुकान का भी दूर होना, पिछले महीने राशन अगर किसी कारण वश अगर छूट जाता है तो नहीं देना। इस तरह की समस्या अक्सर बनी रहती है।

छतरसिंह ने बताया कि हम लोगों को सोसायटी से मिलने वाले राशन से खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। जब घर में अनाज की कमी होने लगती है तो राशन दुकान से ही राशन खरीदते है, लेकिन यहां कभी राशन अच्छा मिलता है तो कभी मध्यम दर्जे का होता है। कभी तो इसकी गुणवत्ता बिलकुल घटिया होती है। इसमें छोटे दाने और मिट्टी भी भरपूर होती है। इसे साफ करने पर करीब 10 फीसदी कचरा निकल जाता है।

उन्होंने बताया कि जब से पारंपरिक अनाज की आत्मनिर्भर खत्म हुई है तब से हमें राशन दुकानों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की राशन दुकानों से एक सीमा तक समुदाय के लोगों को खाद्य सुरक्षा मिलती है, लेकिन इससे हमें पर्याप्त पोषण अहार नहीं मिलता। छतरसिंह का मानना है कि समुदाय के लोगों ने लंबे समय से ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी जैसे मोटे अनाज का सेवन किया है। ऐसे में गेहूं और चावल मिलने के बाद भी हमारी खाद्य सुरक्षा अधूरी सी लगती है।

समुदाय के गिरधर बारेला बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए क्षेत्र में मनरेगा योजना संचालित है, लेकिन इसका लाभ समुदाय के लोगों को नहीं मिल रहा है। गांव में योजना के तहत तालाब और सड़क निर्माण जैसे काम कम ही हुए हैं जहां हुए हैं वहां भी लोगों को पैसा नहीं मिला है उन्हें आज भी पैसों के लिए भटकना पड़ रहा है। अब क्षेत्र में समुदाय के लोग मनरेगा में काम ही नहीं करना चाहते। उनका कहना है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसे समय पर मिलना चाहिए। अगर पैसा नहीं मिल रहा है तो ऐसे काम का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इसके अलावा सरपंच और बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इससे हमारा समय भी खराब होता है और अन्य जरूरी काम भी प्रभावित होते हैं। वहीं, दूसरी जगह मजदूरी करने पर हमें नगद पैसा मिलता है। जाहिर है आदिवासी क्षेत्रों में मनरेगा योजना समुदाय के लोगों की खाद्य सुरक्षा को पूरा नहीं कर पा रही है।

आदिवासी क्षेत्र के स्कूलों में शासन के निर्देश के बावजूद मेनू के मुताबिक बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं दिया जा रहा है। भोजन में बच्चों को पोषण देने वाली चीजे भी पर्याप्त नहीं मिलती है। समुदाय के लोगों ने बताया कि यहां शिक्षक अपनी मर्जी के मुताबिक समूह से भोजन बनवाते हैं। वहीं, बच्चों की उपस्थिति अधिक बताकर अनियमितता भी की जाती है। कई बच्चे स्कूल में भोजन करने के बाद घर आकर भी भोजन करते हैं। इस मामले की शिकायत करने पर व्यवस्था कुछ सुधरी, लेकिन थोड़े समय बाद हालात जस के तस हो गए।

ग्राम पंचायतों द्वारा विकास के लेकर किए जाने वाले कार्य भी समुदाय के लिए संतोषप्रद नहीं है। इन लोगों को पंचायत की ओर से बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल रही है। समुदाय के लोगों को खस्ताहाल सड़क, बिजली नहीं होना, पानी भी दूर से लाना जैसी समस्या है। सरपंच ने यहां एक भी विकास कार्य नहीं कराया है। ग्रामीणों को आरोप है कि हर साल सरकार विकास के नाम पर लाखों रुपए भेजती है। आखिर यह पैसा कहां जा रहा है? इसकी जांच होनी चाहिए।

ग्रामीण सीताराम ने बताया कि हम लोगों को बारिश में सबसे अधिक परेशानी होती है। यहां आसपास के क्षेत्र में सड़क पर कीचड़ हो जाता है। ऐसे में पैदल जाना भी मुश्किल होता है। हम लोगों ने सरपंच और दौरे के समय विधायक के सामने भी सड़क बनाने की मांग रखी थी, लेकिन वे भी आश्वासन देकर चले गए। सीताराम का कहना है कि जब तक इन क्षेत्रों का विकास नहीं होगा तो व्यवस्था कैसी सुधरेंगी। इस मामले में क्षेत्र के जागरूक लोगों ने बताया कि यह क्षेत्र वन ग्राम में आता है। इसलिए यहां बिजली और सड़क निर्माण में दिक्कत आ रही है। आदिवासी क्षेत्रों में समुदाय के लोगों को जितनी जरूरत खाद्य सुरक्षा की है उतनी ही आज बुनियादी सुविधाओं की भी। अगर यह कहा जाए कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो कोई अतिशोयोक्ति नहीं होगी। सरकार को इन चीजों पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए।

बुधवार, 27 जनवरी 2016

सहायबा में 13 बच्चे कुपोषण के शिकार

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के संसदीय क्षेत्र विदिशा के गंजबासौदा ब्लॉक में सहरिया आदिवासियों के बच्चों में कुपोषण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। प्रशासन के लाख दावों के बावजूद गंजबासौदा विकासखंड के आदिवासी बहुल्य क्षेत्रों में कुपोषण के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। इलाके में संचालित आंगनबाड़ी केंद्रों पर न तो मीनू के अनुसार पोषण आहार दिया जा रहा है और न ही बच्चों को केंद्र से जोडऩे की सार्थक पहल की जा रही है। इसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा विकासखंड में हर महीने पोषण आहार और स्वास्थ्य पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी कुपोषण कम नहीं होना विभाग की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़ा करता है।

आंकड़ों ने चिंता बढ़ाई...
ग्राम सहायबा में तो बच्चों में कुपोषण और कम वजन के आंकड़े चौकाने वाले हैं। इसके बावजूद महिला एवं बाल विकास विभाग गंभीरता नहीं दिखा रहा है। यहां गंभीर कुपोषित बच्चों की संख्या सात है। वहीं, कम वजन वाले छह बच्चे हैं। यह तो एक वानगी है, क्षेत्र में एक भी ऐसा भी गांव नहीं है तो कुपोषित या कम वजन के बच्चे न हों। सहायबा आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता ने बताया कि हाल ही में इन बच्चों को वजन किया गया, तो सात गंभीर कुपोषित और छह कम वजन के बच्चे सामने आए हैं।

हर महीने बढ़ रहे कुपोषित
प्रसून एनजीओ की कार्यकर्ता मिथलेस सेन ने बताया कि यहां पिछले महीने कुपोषित बच्चों की संख्या तीन थी। समय पर बच्चों को पोषण आहार और विशेष देखभाल नहीं होने से संख्या बढक़र अब सात हो गई है।

एनआरसी में भी उपेक्षापूर्ण व्यवहार
नबल सहरिया की पत्नी ने बताया कि उनका बेटा करण 16 माह का है। वह दोनों आंखों से देख भी नहीं सकता। वह न तो खाना-पीना करता है और न ही सामान्य बच्चों की तरह उसका व्यवहार है। इनके अनुसार, इनके पास उपचार कराने के लिए पैसा नहीं है। दिनभर खेतों में काम करने परिवार का पेट भरते हैं। पहले एनआरसी केंद्र में भी बच्चे को भर्ती कराया था। यहां दो तीन दिन रखने के बाद डॉक्टर्स और नर्सों का व्यवहार उपेक्षा पूर्ण होने से बच्चे के घर लेकर आ गए हैं।

विशेष जांच शिविर लगाने की जरूरत
जानकारों का कहना है कि प्रशासन को आदिवासी अंचलों में लगातार बढ़ रहे कुपोषण के मामले को लेकर स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभाग की ओर से विशेष जांच शिविर लगाने की जरूरत है।

विकासखंड क्षेत्र में 25 गांव चिह्नित
2002 में कराए गए सर्वे के अनुसार विकासखंड क्षेत्र के 25 गांव कुपोषण के लिए चिन्हित किए गए हैं। इनमें से अधिकांश उदयपुर क्षेत्र के ही हैं। उसके बाद से ही विकासखंड में कुपोषण को रोकने के लिए कार्य प्रारंभ हुए। बावजूद कुपोषण के मामले लगातार समाने आ रहे हैं।
यह हैं गंभीर कुपोषित
नाम पिता का नाम वर्ग उम्र
धनराज सुक्का आदिवासी 10 माह
राजेश गोपाल आदिवासी 9 माह
करण नबल आदिवासी 16 माह
कुंअरसिंह गुड्डा हरिजन 21 माह
साधन प्रकाश आदिवासी 18 माह
रूपस मुकेश हरिजन 18 माह
सुमतारा अमरसिंह आदिवासी 12

कम वजन वाले बच्चों की स्थिति
नाम/पिता/वर्ग/उम्र
राधा/अमर सिंह/आदिवासी/34 माह
सोनिया/प्रकाश/आदिवासी/39 माह
लक्ष्मी/देशराज/हरिजन/1 साल
सौरभ/मेहरवान/लौधी/1 साल
बादल/दुरक/आदिवासी/15 माह
विकास/सौदान/आदिवासी/34 माह

''बाल विकास परियोजना अधिकारी की पोस्ट खाली है। कुपोषण चिन्हित गांवों का नए सिरे से सर्वे कराया जाएगा। पोषण आहार और आंगनबाड़ी की जांच कराएंगे। बच्चों को पोषण आहार सही ढंग से मिल रहा है या नहीं, कुपोषण की रोकथाम के लिए प्रयास किए जाएंगे।''
सीएम ठाकुर, एसडीएम गंजबासौदा


Oct 07, 2015 को भास्कर डॉट कॉम में प्रकाशित

सोमवार, 25 जनवरी 2016

यहा दालानों में चलते हैं अस्पताल क्योंकि....

मध्यप्रदेश के ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी तरह से बदहाल हैं। कई जगह डॉक्टरों की कमी है, तो कहीं अस्पताल भवन ही नहीं हैं। जब अस्पतालों की स्वास्थ्य सुविधाओं का विदिशा जिले के गंजबासौदा ब्लॉक में जायजा लिया, तो स्थिति बहुत ही गंभीर नजर आई। विकासखंड में 28 उप स्वास्थ्य केन्द्र हैं, इनमें से सिर्फ 12 केन्द्रों के भवन बने हुए हैं। छह स्वास्थ्य केंद्र भवन डेड घोषित किए जा चुके हैं। 15 स्थानों पर स्वास्थ्य केन्द्र किराए के मकान या फिर ग्रामीणों के दालानों में चलते हैं। इसलिए स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी नहीं जाते।
सड़क पर बसे गांवों को छोड़कर दूरदराज क्षेत्र और कच्चे मार्गों के किनारे स्थापित उप स्वास्थ्य केन्द्र में ताले पड़े रहते हैं। जो उप स्वास्थ्य केन्द्र सड़क किनारे गांव में बने हुए हैं, उनमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता आते हैं लेकिन दूर दराज के गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता महीनों नहीं जाते। यहां तक कि इन गांवों में टीकाकरण तक नहीं हो रहा है। सिर्फ 9 केन्द्र ऐसे हैं जहां कामकाज ठीकठाक चल रहा है।
ये भवन पड़े हैं क्षतिग्रस्त
उप स्वास्थ्य केंद्र ककरावदा, सिरनोटा, ऊहर, पिपराहा, भिदवासन, हमीदपुर के भवन कंडम घोषित किए जा चुके हैं। इससे इन गांवों में स्वास्थ्य केंद्रों का कामकाज लोगों के घरों की दालान और सार्वजनिक भवनों के भरोसे किया जा रहा है। कई उप स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ कर्मचारियों के भरोसे चल रहे हैं। डॉक्टरों के पद खाली पड़े हैं। केन्द्रों की मरम्मत के लिए हर साल दस हजार रुपए मिलते हैं, लेकिन डेढ़ दर्जन से ज्यादा उपस्वास्थ्य केंद्रों की मरम्मत नहीं की गई।
भवन बना फिर भी किराए के मकान में
ग्राम उदयपुर में उप स्वास्थ्य केन्द्र का नया भवन दो साल से तैयार है, लेकिन यहां अभी भी उपस्वास्थ्य केन्द्र किराए के मकान में चल रहा है। नए भवन में स्वास्थ्य केन्द्र स्थानांतरित नहीं किया जा रहा। जिस किराए के भवन में उपस्वास्थ्य केन्द्र चल रहा है, उसमें कर्मचारी को बैठने तक फर्नीचर नहीं है। नए भवन का स्वास्थ्य विभाग द्वारा तीन बार निरीक्षण भी किया जा चुका है। उसके बाद भी भवन हस्तांतरण का मामला अटका है।
नाम का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
त्योंदा तहसील मुख्यालय पर 30 बिस्तरों का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र है, लेकिन केंद्र पर एक्स-रे, पैथालॉजी की सुविधा नहीं है। कभी मशीन खराब रहती है कभी मशीन चलाने वाला कर्मचारी नहीं रहता तो कभी सामग्री नहीं होती। इसी तरह ग्राम गमाखर का उप स्वास्थ्य केंद्र कई सालों से कंपाउंडर के भरोसे चल रहा है। वहां डॉक्टर का पद खाली पड़ा है।
नीम-हकीमों के भरोसे ग्रामीण
विकासखंड में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं भगवान भरोसे चल रही हैं। ग्रामीणों का उपचार नीम-हकीमों से कराना पड़ रहा है। उप स्वास्थ्य केन्द्रों पर आयुष और होम्योपैथिक डॉक्टरों की पद स्थापना भी की गई है, लेकिन वह भी उपचार नहीं दे रहे हैं। उपचार के अभाव में कई ग्रामीणों की हालत ऐसी हो जाती है कि उनका उपचार तहसील मुख्यालय पर भी संभव नहीं रहता।
जांच की जाएगी
डेड भवनों के स्थान पर नए भवन बनाने के प्रस्ताव भेजे जा चुके हैं। जहां तक ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य केंद्रों का प्रश्न है। उनकी सफाई पुताई के लिए राशि दी जाती है। यदि राशि का उपयोग नहीं किया गया तो उसकी जांच की जाएगी।
डॉ. धर्मेंद्र रघुवंशी, मेडिकल अधिकारी, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र
Oct 30, 2015. Bhaskar.com

बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही आंगनबाड़ी

दोनों को दूरी दो किमी होने से बारोद टपरा के आदिवासी बच्चों को नहीं भेजते

विदिशा जिले में गंजबासौदा विकासखंड के बारोद आदिवासी टपरा का कोई भी बच्चा न तो स्कूल जाता है और न ही आंगनबाड़ी। क्योंकि यहां से आंगनबाड़ी केंद्र और स्कूल की दूरी दो-दो किलोमीटर दूर है। बारोद आंगनबाड़ी में तो 30 आदिवासी बच्चों के नाम भी दर्ज हैं। जब भी कोई काम होता है तो इनके माता-पिता महीने में एक-दो बार आंगनबाड़ी आकर पोषण आहार लेकर चले जाते हैं।

आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता लीला शर्मा ने बताया कि अगर बच्चों के लिए उनके टपरे के आसपास ही केंद्र खुल जाए तो इन बच्चों को आंगनबाड़ी का सही मायने में लाभ मिल सकता है। इस समस्या को लेकर महिला बाल विकास विभाग गंजबासौदा के अफसरों को भी बताया जा चुका है। इसके बावजूद अब तक कोई पहल नहीं की गई है। रहवासी राधेश्याम शर्मा ने बताया गांव की सीमा में आवासीय जगह न होने से आदिवासियों को राजस्व भूमि पर बसाया गया था। उसी समय से सहरिया परिवार वहां रह रहे हैं।

टपरा के लखपत सिंह सहरिया ने बताया कि बच्चों को जंगल से होकर दो किमी दूर बारोद जाना पड़ता है। हम रोज तो बच्चों को आंगनबाड़ी नहीं ले जा सकते। आवागमन की कोई सुविधा नहीं है। पूरा रास्ता जंगल से होकर गुजरता है। आसपास पत्थरों की बड़ी-बड़ी खदानें हैं। जंगल में कई जानवर भी रहते है। जिससे कभी भी हादसा हो सकता है। हमें मजदूरी के लिए खेतों पर भी जाना पड़ता है। अगर यह केंद्र हमारे टपरे के आसपास ही खुल जाए तो बच्चों को इसका फायदा मिलेगा।

टपरे के रूपसिंह सहरिया ने बताया कि यहां से प्राथमिक स्कूल भी दो किमी दूर है। इसलिए बड़े बच्चों भी जाना पसंद नहीं करते। कभी-कभी तो हमें ही बच्चों को लेकर जाना और आना पड़ता है। कई बार सरपंच और जनप्रतिनिधियों के सामने भी हमने इस समस्या को रखा। लेकिन हम आदिवासियों की सुनता कौन है।

बुनियादी सुविधाएं भी नहीं
60 वर्षीय पानबाई ने बताया कि दो साल पहले यहां बिजली के खंभे तो लगा दिए हैं, लेकिन तार अभी तक नहीं डले। पूरी सड़क उबड़-खाबड़ है। यहां वाहन आता तो दूर पैदल चलना भी मुश्किल होता है। हैंडपंप एक भी नहीं है, कुएं का पानी पीते है। कुआं भी आसपास से कच्चा है। इसलिए गंदगी भी कुएं में मिलती है।

18 किमी दूर है अस्पताल
वीर सिंह का कहना है कि हमें इलाज के लिए 18 किमी दूर त्योंदा जाना पड़ता है। डिलीवरी के दौरान महिलाओं को कच्चे रास्ते से अस्पताल ले जाना बहुत मुश्किल होता है। बारिश में तो समस्या और बढ़ जाती है। इस दौरान डिलीवरी गांव में ही अप्रशिक्षित दायियों के माध्यम से करानी पड़ती है। टपरे पर आदिवासियों के लिए शौचालय तक नहीं बनाए गए हैं।

मौत भी हो चुकी है कुपोषण से
कुछ समय पहले पास के नूरपूर टपरा में कुपोषण और समय पर इलाज नहीं मिलने के कारण गंगा पिता मिठ्‌ठी की मौत भी हो चुकी है। इसके बाद भी प्रशासन ने आदिवासियों की समस्याओं को लेकर गंभीरता नहीं बरत रहा है। इस मामले में गंजबासौदा के बाल विकास अधिकारी ने बताया कि बारोद गांव का हिस्सा है टपरे लेकिन नए आंनवाड़ी केंद्र खोलने के प्रस्ताव भेजे गए हैं। जैसे ही नए केंद्रों को अनुमति मिलेगी। वहां सहायक केद्र खोला जाएगा।

03 नवंबर 2015 को प्रकाशित

रविवार, 24 जनवरी 2016

व्यवस्था से पिसते आदिवासी


मध्यप्रदेश सरकार आदिवासी अंचलों में बारेला समुदाय के लोगों की पोषण की सुरक्षा और कुपोषण को दूर करने के लाख दावे करे, मगर जमीनी हकीकत इससे बिलकुल अलग है। यहां आदिवासी समुदाय के लोगों को आज भी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। बरसों पहले परंपरागत आदिवासी जीवन जीने वाला यह समुदाय आज पेट भरने के लिए भी संघर्ष कर रहा है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय स्तर पर रोजगार के अवसर सीमित होना, कम खेती और उपजाऊ जमीन का न होना, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान फसलों को क्षति पहुंचना, आजीविका का अन्य जरिया न होना और मोटे अनाज वाली फसलों का उत्पादन कम होना जैसी समस्याएं समुदाय के लोगों के लिए संतुलित पोषण में बाधा बन रही है।

इसका सीधा असर समुदाय की गर्भवती महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। जन्म लेने वाले अनेक बच्चे कम वजन के पैदा हो रहे हैं। ऐसी स्थितियां यहां पहले नहीं थीं। इसकी वजह इनकी जीवनशैली थी। वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा ऐसे आदिवासी परिवारों को जागरूक करने और कुपोषण दूर करने के लिए कई योजनाएं भी आंगनबाड़ी केंद्र के माध्यम से संचालित है, लेकिन जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदाय को इसका सीधा लाभ नहीं मिल रहा है।

हरदा जिले की खिरकिया तहसील के आदिवासी अंचल डाबिया, जामन्या खुर्द, कालाकहूं, आर्या, गेनाढ़ाना आदि इलाकों में सुपोषण के लिए महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा आंगनवाड़ी केंद्र तो संचालित है, लेकिन इनका लाभ यहां के आदिवासी परिवारों को नहीें मिल रहा है। अगर हम ग्राम डाबिया और आर्या की बात करें तो यहां करीब डेढ़ साल से आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से बच्चों को न तो नाश्ता मिल रहा है और न ही भोजन। वहीं, गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार के रूप मेें मिलने वाला दलिया भी महीने में एक पैकेट ही मिल पा रहा है, जबकि नियमानुसार प्रत्येक सप्ताह एक पैकेट दिया जाने का प्रावधान है।

अंचल में बारेला आदिवासी समुदाय के लोग खेतों के आसपास मकान बनाकर रहते हैं। कुछ इसी तरह के हालात गेनाढ़ाना के हैं। यहां नबंवर से अब तक आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चों को न तो नाश्ता मिला और न ही भोजन।
बारेला आदिवासी अपनी पंरपरागत दिनचर्या से दूर होकर वर्तमान समय के साथ तालमेल भी नहीं बैठा पाए हैं। पहले जंगलों पर आश्रित रहने वाला यह समुदाय कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसलों को उत्पादन करता था। जिसमें प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व होते थे। इसके अलावा कई प्रकार के कंद भी इनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करते थे।

पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद समुदाय स्वास्थ्य का अच्छा जानकार था। इसके अलावा वे पर्यावरण को लेकर भी जागरूक थे। लेकिन वनों का राष्ट्रीयकरण होने के बाद आदिवासियों को जंगलों से दूर होना पड़ा। परंपरागत औषधियों और पोषण देने वाली चीजें भी उनसे दूर होती चली गई है। सीमांत खेती और आजीविका का जरिया नहीं होने के कारण अब उन्हें पेट भरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में गर्भवती महिलाओं को पोषण देने वाली परंपरागत चीजों के उपलब्ध नहीं होने पर इसका सीधा असर पैदा होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है और कम वजन, खून की कमी जैसी परेशानियां सामने आ रही हैं।

आंगनवाड़ी केंद्र डाबिया में आदिवासी समुदाय के 126 बच्चे दर्ज हैं। इनमें बारेला समुदाय के शून्य से दो माह 11 दिन तक के 39 बालक और 35 बालिका शामिल है। वहीं, तीन माह से पांच माह ग्यारह दिन तक के 26 बालक और 26 बालिका हैं। इनमें पूरे गांव में आदिवासी समुदाय के कम वजन और कुपोषित बच्चों की संख्या आठ है। इसमें ग्रेड-4 में शामिल बच्चों की स्थिति कम वजन के रूप में दर्शायी गई है। वहीं सी में कुषोषित श्रेणी के बच्चों को दर्शाया गया है। इनमें से कुछ बच्चों का इलाज एनआरसी केंद्र में चल रहा है।

आदिवासी अंचल डाबिया में कुपोषण की ऐसी स्थिति होने के बाद भी यहां अब तक न तो सुपोषण केंद्र और न ही स्नेह शिविर खोलने की योजना बन पाई है। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पोषण की अधिक जरूरत होती है। इसलिए आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से पोषण आहार बांटने की योजना भी शासन स्तर पर है, लेकिन जिला मुख्यालय के अफसरों की अनदेखी और तहसील स्तर पर जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही से महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित योजनाएं ठप हैं।

आदिवासियों का कहना है कि इस मामले की शिकायत यहां के अफसरों से भी कर चुके हैं बावजूद इसके अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। ग्राम आर्या की फुलवती बाई का कहना है कि आंगनवाड़ी केंद्र की निगरानी और संचालन के लिए पंचायत स्तर पर सुपरवाइजर को नियुक्त किया गया है, लेकिन यहां करीब छह महीने से किसी ने भी निरीक्षण नहीं किया।

हितग्राही महिलाओं ने कहा कि नियमानुसार आंगनवाड़ी केंद्र पर प्रत्येक मंगलवार को मंगल दिवस मनाने का शासन का आदेश है। इसके लिए 50 रुपए का भुगतान भी महिलाओं को किया जाता है। पहले मंगलवार गोद भराई, दूसरे मंगलवार अन्नप्राशन, तीसरे मंगलवार जन्मदिवस और चौथे मंगलवार को किशोरी दिवस मानने के निर्देश हैं। यहां के अधिकांश आदिवासी बारेला समुदाय के अधिकांश लोगों को इन दिवसों की न तो जानकारी है और न ही आंगनवाड़ी केंद्र के माध्यम से इन्हें जागरूक किया जाता है। आर्या के ही गंगाराम ने कहा कि केंद्र के लिए यहां शासन ने नवीन भवन का निर्माण तो करा दिया, लेकिन यहां एक दिन भी कक्षाएं नहीं लगीं। रखरखाव नहीं होने से भवन के दरवाजे और खिड़किया भी टूट गए हैं।

कुल मिलाकर आदिवासी अंचल के गांवों की उपेक्षा से यहां के पारंपरिक जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। मंगलवार को मंगल दिवस बना देने भर से स्थितियां सुधर नहीं सकतीं। आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों की परंपरागत भोजन शैली को उन्हें पुन: उपलब्ध करवाया जाए, बजाए इसके कि वे पांच सितारा होटल की सर्वाधिक आकर्षक प्रस्तुति बनकर रह जाएं।

Tuesday , May 13,2014 को देशबन्धु में प्रकाशित